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व्रज कवियों के इस प्रसिद्ध मंडल का इतिहास पूर्ण करने के लिए; हम समय की सीमा ( १६०० ई० ) का अब थोड़ा सा अतिक्रमण करेंगे ।कृष्णदास पयअहारी ( संख्या ३६ ) के एक शिष्य गलतवासी अग्रदास( संख्या ४४ ) थे, जो नाभादास उपनाम नारायणदास दक्षिणी के गुरु थे। यह १६०० ई० में उपस्थित थे और डोम जाति के थे । परंपरा के अनुसार यह अंधे पैदा हुए थे, और जब ५ बरस के थे, अकाल के समय, अपने पिता द्वारा, मरने के लिए, जैगल में छोड़ दिए गए थे । ऐसी ही परिस्थिति में अग्रदास और कील्ह नामक एक अन्य वैष्णव ने इन्हें पाया । उन्हें इनकी असहाय दशी पर दया आ गई । कील्ह ने अपने कमंडल से जल लेकर इनकी आँखों पर छिड़का, और बच्चा देखने लगा । वे नाभा को अपने मठ में ले गए, जहाँ इनको पालन पोषण हुआ । यहीं अग्रदास ने इन्हें दीक्षा दी । जब यह प्रौढ़ हुए, अग्रदास की आज्ञा से इंन्होंने भक्तमाल ( राग कल्पद्रुम ) लिखा जिसमें १०८ छप्पय छंद हैं । यह व्रजभाषा में लिखित कठिनतम ग्रंथों में से एक है। नाभादास के एक शिष्य ने, जिसका नाम नारायणदास था और जो शाहजहाँ के शासन-काल (१६२८-१६५८ ई०) में था, इसको संपादित किया,यह तो निश्चित है, उसने संभवतः इसे पुनः लिखा । आज यह इसी ( संपादित अथवा पुनलिखित ) रूप में उपलब्ध है। श्री ग्राउस, जिनका इस सूचना केलिए मैं आभारी हूँ, लिखते हैं-

“सामान्यतया एक व्यक्ति के संबंध में एक ही छप्पयं हैं। इसमें उसकी प्रमुख विशिष्टताओं का उल्लेख करते हुए उस व्यक्ति की प्रशंसा ऐसी शैली में की गई है, जिसे अतुलनीय अस्पष्टता की संज्ञा दे दी गई होती, यदि संवत् १७६९ ( १७१२ ई० ) में प्रियादास ने इसके प्रत्येक छंद की टीका न लिख दी होती, जो कि संतों के जीवन की विभिन्न दंतकथाओं के असंबद्ध और अस्पष्ट संकेतों से और भी अधिक गड़बड़ हो गई है ।

प्रियादास की टीका कवित्तों में है। तदनंतर काँधला के एक कायस्थ लाल जी ने ( संख्या ३२२ ), ११५८ हिजरी ( १७५१ ई० ) में भक्त उरबसी नामक इसकी एक और टीका लिखी । १८५४ ई० में मीरापुर के तुलसीराम अगरवाला ( संख्या ६४० ) ने भक्तमाल प्रदीपन' नाम से इसका एक उर्दू अनुवाद किया।

नारायणदास, जिसको श्री ग्राउस ने नाभादास कां शिष्य कहा है, देशी


१-यह सब मुख्यतयां विलसन के रेलिजस सेक्टूस अफ द हिन्दू, भाग १, पृष्ठ ६० से लिया गया हैं। देखिए गार्सा द तासी, भाग १, पृष्ठ २७४।