पृष्ठ:हिंदी साहित्य का प्रथम इतिहास.pdf/१४२

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वली में वह सूत्रमय हो गए हैं, संतसई' में तो वह इतने कठिन और अस्पष्ट हो गए हैं, जितना कि 'नलोदय का कोई भी प्रेमी पसंद कर सकता है। सतसई वस्तुतः प्रतिभापूर्ण रचना है और मुझे प्रसन्नता है कि अपने ढंग की इस प्राचीनतम रचना का संपादन प्रोफेसर बिहारीलाल चौबे बिब्लिओथेका इंहिका के लिए कर रहे हैं । पचास वर्षों बाद यही प्रणाली ( टीकाकारों के लिए आकर) बिहारीलाल (संख्या १९६) द्वारा अपने चरम पर पहुंच गई। पुनः, विनय पत्रिका एक दूसरी ही शैली में है। यह पदों की पुस्तक है, जो प्रायः अत्यंत उन्नत वर्णनों से पूर्ण हैं; लेकिन जिन दो टीकाओं को मैंने देखा। है, उनमें इसकी कठिनाइयाँ बड़े ही असंतोष जनक हैंग से स्पष्ट की गई हैं। मेरी धारणा है कि इनकी काव्य-प्रतिभा के सम्बन्ध में अत्युक्ति पूर्ण ढंग से कुछ कहना कठिन है। इनके पात्र शौर्य काल के पूर्ण गौरव के साथ जीवंत हैं और चलते फिरते हैं। अपने वचन पर दृढ़ दशरथ, जिहें भाग्य ने विफल मनोरथ बनाया; उच्च और अटल आचार वाले राम जिनकी अपने प्रेम परिपूर्ण पर क्रोधी भाई लछिमन से पूर्ण विषमता दिखाई गई है; 'उत्कृष्ट निर्मित एवं निर्दोष नारी' सीता; और रावण, जिसके भाग्य में दशरथ के ही समान पहले से ही असफलता लिख दी गई थी, और जो अपनी सारी दानवी शक्ति के साथ मिल्टन के शैतान के समान भाग्य से अन्त तक लड़ता रहा और जो लगभग आधे काव्य का प्रमुख पात्र है--इस समय जब मैं लिख रहा हूँ ये सब मेरे अन्तःचक्षुओं के सामने उसी स्पष्टता के साथ विद्यमान है, जिस स्पष्टता के साथ सम्पूर्ण अंगरेजी साहित्य का कोई भी चरित्र विद्यमान हो सकता है। तदनन्तर भरत के चरित्र में कितनी विनम्न भक्ति है, जो केवल अपनी सत्यता से माँ कैकेयी और उसकी दासी की सभी असत्य योजनाओं पर विजयिनी होती है। इनके खलपात्र भी केवल कालिमा से पुती तसवीरें नहीं हैं । प्रत्येक 'की अपनी चरित्रगत विशिष्टता है और इनमें से कोई भी ऐसा नहीं है, जिसमें दोष की कमी को पूरा करने वाला कोई गुण न हो। .. संजीवन-शक्ति एवं विविध नाटकीय तत्वों की दृष्टि से, रामचरित मानस इनका सर्वश्रेष्ठ ग्रंथ है, ऐसा मेरा विचार है। किंतु इनके अन्य ग्रंथों में भी अच्छे.अंश हैं । गीतावली के प्रारंभ में शिशु एवं बालक राम की वर्णना अथवा १. यह संवत १६४२ अर्थात १५८५ ई० में लिखी गई ( सतसई, प्रथम शतक, संख्या २१.) विद्यापति के कुट पद १४०० ई. के आसपास लिखे गए थे। . २. इसवे लिखे जाने के बाद इस ग्रंथ का एक संस्करण गीतावली के संपादक बैजनाथ की टीका के सहित लखनऊ के नवलकिशोर के यहां से १८८६ ई० में निकल गया ! - --