पृष्ठ:हिंदी साहित्य का प्रथम इतिहास.pdf/१४३

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वनवास के दिनों पयादे पाँव वन पथ पर थकावट से घसिटते राम, लक्ष्मण, सीता और ग्राम वधूटियों के कथनोपकथन में दिए रंगों के कोमल स्पों से बढ़कर और क्या मनोरम हो सकता है ? पुनः, कवितावली के सुंदरकांड के अन्तर्गत लंकादहन की संपूर्ण वर्णना में शब्दों पर कवि को कैसा अधिकार हैं. १ आग की लपटों की चटचटाहट, गिरते भवनों की गड़गड़ाहट, नरों का कोलाहल और घबराहट, ‘पानी पानी’ चिल्लाते हुए विवश नारियों की बिलबिलाइट सभी ध्वनियों को हम स्पष्ट सुन सकते हैं। | तुलसीदास भी भारतीय काव्य-प्रणाली के परंपरागत घने कुहासे से पूर्णतया ऊपर नहीं उठ सके हैं । मैं स्वीकार करता हूँ कि उनके युद्ध-वर्णन प्रायः अस्वाभाविक और विकर्षक हैं और कभी-कभी दुखद और उपहासास्पद के बीच की सीमा को भी अतिक्रमण कर जाते हैं । देशी लोगों की दृष्टि में कवि के लिखे हुए ये ही सर्वोत्तम छंद है; पर मैं ऐसा नहीं समझता कि सुसंस्कृत यूरोपीय को इनमें कभी भी अधिक आनंद आ सकता है। राम को बार बार विष्णु के अवतार रूप में प्रस्तुत करने की आवश्यकता भी उनके मार्ग में बाधक हुई है । यद्यपि भावुक भक्त की दृष्टि में यह विनम्र श्रद्धाभाव मात्र है, पर हम म्लेक्ष। के लिए तो यह घोर अत्युक्ति ही है । इस महान कवि की इस कृति के गुणों के कारणों को ढूंढने के लिए दूर न जाना होगा । सबसे महत्वपूर्ण कारण कवि की अति-विनम्रता है, रामचरित मानस की भूमिको चैथ के अत्यंत विशिष्ट प्रकरणों में से एक है । कालिदास रघुवंश के प्रारम्भ में अपनी बामन से और अपने भाषाधिकार की असीम सागर में एक लघु तरणी से तुलना कर सकते हैं, पर इस विनम्र उक्ति के भीतर । से उनकी श्रेष्ठता की सुज्ञानता झलक रही है। उनकी विनम्रता स्पष्ट ही कृत्रिम . है, और सत्यता तो यह है कि कवि सर्वदो कद्दता प्रतीत होता है--*मैं शीघ्र . ही अपने पाठकों को प्रदर्शित करूंगा कि मैं कितना विद्वान हूँ, और नव रसों - पर मेरा कितना अधिकार है । पर ( और यह उनकी श्रेष्ठता का दूसरा कारण है ) तुलसी ने कभी भी एक पंक्ति नहीं लिखी, जिसमें वे अन्तरतम से विश्वास न करते रहे हों । वे अपने विषय, अपने स्वामी की भक्ति और उनके गौरव, में पूर्णतया निमग्न थे; और वह भक्ति और गौरव उनसे इतने उचे थे कि वह सदैव अपने को दीन समझते रहे। जैसा कि वह कहते हैं--- करन चहउँ रघुपति गुनगाहा | लघु मति मोरी चुरित अवगाहा ।