पृष्ठ:हिंदी साहित्य का प्रथम इतिहास.pdf/१५४

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| | ( १४३ )। चंद' किरन रस रसिक चकोरी । रबि रुख नयनसकै किमि जोरी ।। दोहा-करि केहरि निसिचर चरहिं दुष्टं जंतु बन, भूरि । . विख वाटिका कि सोह सुत | .:::. सुभग सँजीवनि मूरि ॥५९॥3 . | चौपाई-बन हित कोल किरात - किसोरी । " "रची बिरश्चि बिखय सुख, भोरी ।। पाहन कृमि जिमि कठिन सुभाऊ। तिनहि कलेसुन काननं काऊ ।।. कै तापस , तिय फानन जोगूः । जिन्ह७ तप हेतु तजा सब भोगू ॥ सिय बन बसिहि तात केहि भाती। चिन्न लिखित कपि देखि डेराती ।। सुरः.. सर सुभग बनज बन चारी । डाबर जोगु . कि. हंसकुमारी ।। | किष्किंधा कांड का अन्त ( वनारस प्रति ) .. ( ये दोनों अंश पुष्पिका के लिए दिए जा रहे हैं )। . छन्द ११-(जो सुनते गावत कहत स) मुझत परम पद भर पावई । | रघुवीर पद पाथोज मधुकर दास तुलसी गावई ॥ दोहा--भव भेखज रधुनाथ जसु, १३ | . :. सुनहि जे नर अरु नारि । | :: :: :: :: तिन्हुकर सकले मनोरथ, सिद्ध करहिं त्रिसिरारि१३ । : सोरठा नीलोत्पल तन१४ स्याम, ......: . काम कोटि सोभा अधिक। १. चंद्र २ सजीवन'३, ५८४, रस ५. तिनहिं कलेस ६. योगू ७. जिने ८, भाँती है. योग १०. यह छपी प्रतियों में कांडों के नाम हैं। यह देखा जा सकता है कि तुलसीदास में दूसरे नाम दिए थे । ११. छन्द छन्दों वाले अंश प्रायः अत्यधिक संस्कृतमय हैं, अतः छपी पोथियों में बहुत कम परिवर्तित हैं । १२, जस'१३. त्रिपुरारी १४. तनु" .