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इस कोश की रचना में मुकुन्दराम शास्त्री या बालमुकुन्दु कश्मीरी का भी हाथ है। रायल एशियाटिक सोसाइटी आफ़ बंगाल ने यह कोष प्रकाशित किया था।

११. बिहारी भाषा का तुलनात्मक शब्द कोश---यह ग्रन्थ डाक्टर रुडाल्फ़ हार्नली के सहयोग से लिखा गया था। इसकी रचना 'द माडर्न वर्नाक्युलर लिटरेचर आफ़ हिन्दुस्तान' के पहले हुई थी। ग्रियर्सन ने इस ग्रन्थ की प्रस्ता- वना में इस कोश का उल्लेख किया है। इसका रचनाकाल १८८७ ई० है।

इन ग्रन्यों के अतिरिक्त इण्डियन ऐंटिक्केरी और रायल एशियाटिक सोसाइटी के जर्नल में भी इनके भाषा सम्बन्धी लेख यदा-कदा प्रकाशित होते रहते थे। इनके भाषा सम्बन्धी कुछ निबन्धों की सूची यह है :-

( १ ) भारतीय भाषाएँ: भाषीय सर्वेक्षण-( व्याख्यान )।

( २ ) भारतीय आर्य भाषाओं में अनुनासिकता।

( ३ ) आधुनिक भारतीय आर्य भाषाओं में प्रत्यय।

( ४ ) आधुनिक भारतीय आर्य भाषाओं का ध्वनि-विज्ञान ( Phonology )

( ५ ) प्रमुख राजस्थानी बोलियों पर टिप्पणी।

( ६ ) कैथी लिपि प्रवेशिका।

ग्रियर्सन ने 'सूर सूर, तुलसी शशी' की मान्य परम्परा को अपनी तुलसी की आलोचनाओं के द्वारा बदल दिया। उन्हें सूर की अपेक्षा तुल्सी ईसाई मत के अधिक निकट जान पड़े। अपने पड़ोसियों के साथ कैसा व्यवहार करना चाहिए, इसका निदर्शन उन्हें तुलसी में दिखाई पड़ा। तुलसी द्वारा चित्रित मानस के चरित्रों पर, उनकी मर्यादावादिता पर, वे मुग्ध हो गए और उनका विश्वास था कि यूरोपीय पाठक इन कारणों से सूर की अपेक्षा तुलसी को अधिक पसन्द करेगा। तुलसी पर ग्रियर्सन ने कोई बड़ा प्रेथ नहीं लिखा। भिन्न भिन्न समयों पर उन्होंने उनपर जो फुटकर निबंध लिखे, उनसे उन्होंने तुलसी के मनोवैज्ञानिक अध्ययन को अग्रसर किया। तुलसी पर लिखे इनके निबंधों की सूची नीचे दी जा रही है:-

( १ ) हिन्दुस्तान का मध्यकालीन भाषा साहित्य, विशेष रूप से तुलसीदास--१८८६ ई० में वियना की प्राच्य विद्या विशारदों की गोष्ठी में यह निबन्ध पढ़ा गया था।

( २ ) द माडर्न वर्नाक्युलर लिटरेचर आफ़ हिन्दुस्तान--यह ग्रंथ १८८८ ई० में रायल एशियाटिक सोसाइटी आफ़ बंगाल के जर्नल में पहले प्रकाशित हुआ। फिर १८८९ ई० में पुस्तकाकार प्रकाशित हुआ। इसके छठें