पृष्ठ:हिंदी साहित्य का प्रथम इतिहास.pdf/२४८

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अध्याय १० कंपनी के शासन में हिंदुस्तान [ १८००-१८५७] मराठा शक्ति के ह्रास से प्रारंभ होनेवाले और गदर से समाप्त होनेवाले वर्ष, हिंदुस्तान का साहित्यिक इतिहास लिखते समय, सहज ही एक अलग युग बन जाते हैं। यह पुनर्जागर्ति का, उत्तरी भारत में मुद्रण यंत्रों के वास्तविक प्रारभ का, और अब इतना प्रशंसनीय कार्य करनेवाली आधुनिक ढंग की पाठशालाओं के श्री गणेश का युग था। साथ ही, यह यूरोपीय लोगों को हिंदी नाम से ज्ञात और उन्हीं द्वारा आविष्कृत, अद्भुत संकीर्ण भाषा के प्रादुर्भाव का भी युग था। १८०३ ई० में, गिलक्राइस्ट की देख रेख में लल्लू जी लाल ने अपना प्रेमसागर मिली जुली उस उर्दू ज़बान में लिखा, जो अकबर के खेमे के लोगों और बाजार के लोगों के मेल जोल से बनी थी, जहाँ प्रायः प्रत्येक जाति और देश के लोग एकत्र हुआ करते थे। हाँ, उन्होंने अरबी फारसी के बदले, केवल भारतीय मूल की संज्ञाओं और शब्दांशों के प्रयोग की विशेषता अवश्य रखी। इसका परिणाम एक पूर्णतया नवाविष्कृत भाषा हुई, क्योंकि यद्यपि इसका व्याकरण इसकी पूर्ववर्तिनी भाषा का ही था, किंतु सारा शब्दकोष पूर्णतया बदल गया था। नई भाषा यूरोपीय लोगों के द्वारा हिंदी कही गई और संपूर्ण भारतवर्ष में हिंदुओं की राष्ट्रभाषा के रूप में स्वीकार कर ली गई, क्योंकि इसका अभाव था और इसने उस पूरा कर दिया। यह संपूर्ण उत्तरी भारत में गद्य की सर्व स्वीकृत भाषा हो गई; किंतु यह कहीं की देश भाषा नहीं थी, अतः इसका काव्य के क्षेत्र में कहीं भी सफल प्रयोग नहीं हो सका है। बड़े बड़े प्रतिभा संपन्न लोगों ने प्रयोग किया, पर सभी असफल रहे । अतः इस समय उत्तरी हिंदुस्तान में साहित्य की निम्नलिखित ढंग की विचित्र स्थिति है-इसका पद्य तो सर्वत्र स्थानीय भाषा में विशेषकर ब्रज, वैसवाड़ी और बिहारी में है और इसका गद्य प्रायः सर्वत्र एक सी कृत्रिम बोली में, जो - किसी भी देशी भारतीय की मातृ भाषा नहीं है और जिसने अपने आवि- कारकों की प्रतिष्ठा के कारण, प्रारंभ में जो पुस्तके इसमें छपी, उनकी . . .