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टि०——कवि रत्नाकर नहीं, कवित्त रत्नाकर। यह ग्रन्थ दो भागों में है, प्रथम मैं २९ और द्वितीय में १८ कवि हैं। संभवतः २९ को २० पढ़ा गया है।

——सर्वेक्षण ७१२

६९९. शिव प्रसाद——राजा शिव प्रसाद, सी० एस० आई०, बनारस वाले।

जन्म १८२३ ई०। १८८७ ई० में जीवित।

यह महाशय भारत में शिक्षा प्रसार के लिए परम प्रसिद्ध हैं। यह बीबी रतनकुँबरि (संख्या ३७६) के पौत्र हैं। यह हिंदुस्तानी भाषा को सर्व प्रिय बनाने के लिए परम प्रयत्नशील रहे हैं और अपने इस प्रयत्न के लिए परम प्रख्यात हैं। आगरा, दिल्ली, लखनऊ अथवा असली हिंदुस्तान की बोलचाल की भाषा को, जो फारसी लदी उर्दू और संस्कृत लदी हिंदी के बीच की चीज हो, वह हिंदुस्तानी कहते हैं। इन प्रयत्नों ने भारत के देशी लोगों में एक स्फूर्ति-पूर्ण विवाद खड़ा कर दिया है, जिसका निर्णय अभी तक नहीं हो सका है।' यह शिक्षा संबंधी अनेक ग्रंथों के रचयिता हैं। इनके द्वारा रचित, और स्वयं इन्हीं के द्वारा भेजी हुई, पुस्तक-सूची आगे इसी खंड में जोड़ दी गई है।

इनके जीवन का वृत्तांत कुछ तो लोकनाथ घोष रचित 'माडर्न हिस्ट्री आफ़ द इंडियन चीफ़्स, राजाज़, जमींदार्स एटसेटरा' से और कुछ स्वयं राजा साहब द्वारा ग्रंथकार के पास प्रेषित सामग्री से संकलित किया गया है। ग्यारहवीं शती के अंत में रणथंभौर-(जयपुर राज्य) में पँवार (प्रमार) जाति का धानधल नामक एक व्यक्ति था। एक जैन यती के आशीर्वाद से पुत्रप्राप्ति होने के कारण वह जैन धर्मानुयायी हो गया और ओसवाल जाति में दाखिल कर लिया गया। तेरहवीं शती के अंत में जब अलाउद्दीन ने रणथंभौर को जीता और लूटा, यह वंश क्रमशः अहमदाबाद और चंपानेर गया और अंत में खंभात में बस गया। धानधल से २६ वीं पीढ़ी में अमर दत्त हुए। इन्होंने शाहजहाँ (१६२८-१६५८) को एक हीरा देकर इतना प्रसन्न कर लिया कि सम्राट ने इनको 'राय' की उपाधि दी और इन्हें दिल्ली ले आए तथा बादशाही जौहरी बना दिया। राय अमर दत्त पीछे एक पुत्र छोड़कर मरे, जिसने मुर्शिदाबाद के सेठ मानिकचंद्र की बहन से विवाह किया। इस


१. १४ सितंबर १९४९ को हिंदी के राष्ट्रभाषा हो जाने से हिंदी और हिंदुस्तानी का विवाद जाके कहीं अब सदा के लिए समाप्त हुआ है।

——अनुवादक