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मिथिला के पर्याप्त-प्रसिद्ध-प्राप्त जीवित कवि। यह दरभंगा नरेश महाराज लक्ष्मीश्वर सिंह के दरबारी कवि हैं और बिहारी भाषा की मैथिली बोली में लिखित अत्यंत प्रशंसित 'रामायण' नामक ग्रंथ के रचयिता है।
७०३. जान साहिब—मृत्यु १८८३ ई० के आसपास हुई।

यह उन श्री जान क्रिश्चियन का कवि नाम है, जो एक मात्र ऐसे यूरोपीय हिंदी लेखक हैं, जिनसे मेरा परिचय है और जिनकी भाषा कविता जनता तक पहुँची है। इन्होंने प्रचुर संख्या में ईसाई भजनों की रचना की है, जो तिरहुत के प्रत्येक गानेवाले को मालूम हैं, जिनमें से अधिकांश इनका मूल अर्थ समझे बिना इन्हें गाते हैं। इनका सर्वाधिक प्रतिष्ठा प्राप्त ग्रंथ 'मुक्ति-मुक्तावली' है, जो ईसामसीह का पद्यबद्ध जीवन-चरित है।
७०४. अंबिका दत्त व्यास—बनारसी। १८८८ ई० में जीवित।

नवोदित लेखक। इन्होंने कई नाटक लिखे हैं, जिनका उल्लेख संख्या ७०६ में हुआ है। इनका 'भारत सौभाग्य' महारानी विक्टोरिया की जयंती के अवसर पर लिखा गया था। इनके अन्य ग्रंथों में 'मधुमती' का उल्लेख किया जा सकता है, जो इसी नाम के एक लघु बँगला उपन्यास का अनुवाद है।
७०५. छोटूराम तिवारी—बनारसी। जन्म १८४० ई० के लगभग।

मृत्यु १८८७ ई०।

यह महाशय अनेक वर्षों तक पटना कालेज में संस्कृत के प्रोफेसर थे। इस ग्रंथकार का यह परम सौभाग्य है कि वे इसको अपने घनिष्ट मित्रों में परिगणित करते थे। अपने देश की प्राचीन भाषा कविता का उनका ज्ञान गंभीर और ठीक ठीक था और उनकी कीर्ति दूर-दूर तक फैली हुई थी। अपनी भाषा के लेखक के रूप में उनका यश 'राम कथा' पर निर्भर करता है, जिसका, मेरा खयाल है, कोई भी प्रामाणिक संस्करण कभी नहीं प्रकाशित हुआ। निश्चय ही यह अत्यंत शुद्ध और श्रेष्ठतम आधुनिक हिंदी का आदर्श है, जो गँवारपन और पंडिताऊपन दोनों से पूर्णतया मुक्त है। इन्होंने इसका प्रूफ़ अनेक वर्षों तक अपने पास रखा और मृत्युपर्येत लगातार संशोधन और परिष्कार करते रहे। यह कृति इतनी प्रशंसित हुई कि प्रूफ़ शीट ही बहुतायत से बिक गई और अत्यधिक जनप्रिय हुई। इसके अंश इधर हाल की प्रकाशित पाठ्य पुस्तकों और संग्रह ग्रंथों में प्रमुख स्थानों पर संकलित है।

यह देवीदयाल त्रिपाठी के पुत्र थे। इनके दो भाई और थे—एक इनसे बड़े शीतलप्रसाद, हिंदी में सर्व प्रथम अभिनीत 'जानकी मंगल' नाटक के रचयिता; दूसरे इनसे छोटे गोपीनाथ, जो कालीप्रसाद तिवारी (सं० ७३१) के पिता थे।