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७०६. बिहारी और हिंदी नाटकों पर टिप्पणी

हिन्दी नाटक अभी हाल का ही उगा पौदा है। यह सत्य है कि कुछ प्रारंभिक लेखकों ने भी ऐसे ग्रंथ लिखे, जिन्हें उन्होंने नाटक कहा। उदाहरण के लिए निवाज (सं० १९८) ने शकुंतला लिखा और ब्रजवासीदास (सं० ३६९) तथा अन्यों ने 'प्रबोध चंद्रोदय' के अनुवाद किए; किंतु ये केवल नाम के नाटक थे—पात्रों के प्रवेश और निष्क्रमण से विहीन। इसी प्रकार महाकवि देव (सं० १४०) कृत 'देव माया प्रपंच', महाराज बनारस के लिए लिखित 'प्रभावती' और रीवाँ नरेश महाराज विश्वनाथ सिंह (सं० ५२९) के लिए लिखित 'आनंद रघुनंदन' दृश्य काव्य के तत्वों से हीन है।

पहला हिंदी नाटक, जिसमें पात्र-प्रवेश, पात्र-निष्क्रमण आदि का बराबर निर्देश है, गिरिधरदास (गोपालचंद्र) (सं० ५८०) का 'नहुष नाटक' है। इसमें नहुष द्वारा इंद्र का सिंहासन से हटाया जाना और पुनः आसीन होना वर्णित है। ग्रंथकर्ता के पुत्र, हरिश्चंद्र, उस समय सात वर्ष के थे, जब यह नाटक लिखा जा रहा था, अतः यह सन् १८५७ ई० में लिखा गया।

वास्तविक नाटक के रूप में दूसरा हिंदी नाटक शकुंतला का राजा लक्ष्मण सिंह कृत हिंदी अनुवाद है, जो बाद में श्री पिनकाट द्वारा संपादित हुआ है। इसके बाद हरिश्चंद्र (सं ५८१) का विद्यासुंदर आया, जिसका आधार उसी नाम की प्रख्यात बँगला कविता है, पर सौभाग्य से यह उसकी अश्लीलता से मुक्त है। चौथा नाटक श्री निवासदास का 'तप्ता संवरण' और पोचवाँ हरिश्चन्द्र कृत 'वैदिकी हिंसा हिंसा न भंवति' तथा छठाँ तोताराम कृत 'केटो कृतान्त' है। इन आदर्शों ने अनेक अनुकरण करने वाले उत्पन्न कर दिए। .

पहला हिन्दी नाटक, जिसका अभिनय हुआ, छोटूराम तिवारी (संख्या ७०५) के बड़े भाई, शीतलप्रसाद तिवारी कृत 'जानकी मंगल' था। यह प्रयोग सं० १९२५ (१८६८ ई०) में बनारस थियेटर में हुआ था और अत्यन्त सफल रहा था। इसके पश्चात् श्री निवास दास कृत 'रणधीर प्रेम मोहिनी' और हरिश्चन्द्र कृत 'सत्य हरिश्चन्द्र' का प्रयोग इलाहाबाद और कानपुर में हुआ।

इसके विपरीत बिहार में लगभग पाँच शताब्दियों से नाट्य परम्परा बनी हुई है। विद्यापति ठाकुर (१४०० ई०) (सं० १७) 'पारिजात हरण' और 'रुक्मिणी स्वयंवर' इन दो नाटकों के रचयिता थे। इन नाटकों की हस्तलिखित प्रतियाँ उपलब्ध हैं, ऐसा मेरा विश्वास है। पर मैंने इन्हें