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७२८. गुनाकर त्रिपाठी—काँथा जिला उन्नाव के। १८८३ ई० में जीवित।

यह भाषा और संस्कृत दोनों में रचना करते हैं। इनका वंश ज्योतिष विद्या के लिए प्रसिद्ध है।
७२९. सुखराम—चौहत्तरी जिला उन्नाव के ब्राह्मण। १८८३ ई० में जीवित।

यह संभवतः वहीं 'सुखराम कवि' हैं, जिनको शिव सिंह ने श्रृंगारी कवि कहा है और जिनको १८४४ ई० में उत्पन्न (१ उपस्थित) माना है।

टि०—चौहत्तरी नहीं, चहोतर।

—सर्वेक्षण ९४३

सरोज के ८७९, ९४३ संख्यक दोनों सुखराम एक हो सकते हैं।
७३०. देवीदीन—बिलग्राम जिला हरदोई के बन्दीजन्त। १८८३ ई० में जीवित।

इनके श्रेष्ठतम ग्रंथ 'नखशिख' और 'रस दर्पण' है।

टि०—नखशिख और रस दर्पण यही दो इनके ग्रंथ हैं, जो सुन्दर हैं।

—सर्वेक्षण ३७८


७३१. मातादीन सुकल—अजगरा जिला परतापगढ़ के। १८८३ ई० में जीवित।

यह परतापगढ़ के राजा अजित सिंह के दरबारी कवि थे। 'ज्ञान दोहावली' नाम से इनके कुछ छन्द साहिब प्रसाद सिंह के 'भाषा सार' में मिलेंगे।
७३२. कन्हैया बख्श—बैसवाड़ा (औध) के बैस। १८८३ ई० में जीवित।

इनकी अच्छी रचनाएँ शान्त रस की हैं।

टि०—'शान्त रस का इनका काव्य उत्तम है', न कि 'इनकी अच्छी रचनाएँ शान्त रस की हैं।'

—सर्वेक्षण ८८


७३३. गिरिधारी भाट—मऊ रानीपुरा, जिला झाँसी, बुन्देलखण्ड के। १८८३ ई० में जीवित।
७३४. जबरेस—बुन्देलखण्डी भाट। १८८३ ई० में जीवित।
७३५. रनधीर सिङ्घ—राजा रणधीर सिंह सिरमौर, सिंगरामऊ के। १८८३ ई० में जीवित।

कवियों के आश्रयदाता होने के अतिरिक्त, स्वयं भी काव्य रत्नाकर (१८४० ई० में लिखित) और भूषण कौमुदी (१८६० ई० में लिखित) ग्रंथों के रचयिता हैं। मऊ नामक कई कस्बे भारत भर में हैं, लेकिन मैं शिव सिंह द्वारा उल्लिखित मऊ की पहचान नहीं कर सका।

टि०—सिंगरामऊ जौनपुर जिले में है।