सम्बन्ध में हमें कुछ निश्चित सूचनाएँ प्राप्त हैं, सुप्रसिद्ध चन्द बरदाई है, जिसने बारहवीं शती के अन्तिम भाग में दिल्ली के पृथ्वीराज चौहान के वैभव और गुणों का वर्णन प्रख्यात 'पृथ्वीराज रासो' में किया है। उसका सम-सामयिक चारण जगनायक था, जो पृथ्वीराज के महान प्रतिद्वन्दी महोबा के परमर्दि का दरबारी था और संभवतः आल्हखंड का रचयिता था, जो पृथ्वीराज रासो की ही भाँति हिन्दुस्तान में समान रूप से प्रख्यात है, किन्तु दुर्भाग्य से हस्तलिखित रूप में सुरक्षित न रहकर मौखिक परम्परा में ही शेष रह सका है।
इन चारणों की परम्परा को आगे बढ़ाते हुए, हम शारंगधर या सारगंधर का उल्लेख कर सकते हैं, जिसने चौदहवीं शती के मध्य में रणथंभौर के वीर हम्मीर ( १३०० ई० में उपस्थित ) के शौर्य का गीत गाया है। बुरहानपुर के केहरी ( १५८० ई० में उपस्थित ) पर दृष्टिपात करते हुए, हम चारणों के दो उज्ज्वल वर्गों के समीप आते हैं, जो १७ वीं शती में मेवाड़ और मारवाड़ राज-दरबारों को सुशोभित करते थे। इस सूची में अन्य साधारण कवियों और बुन्देलखण्ड के एक महत्वपूर्ण इतिहास के रचयिता ( १६५० ई० में उपस्थित ) लाल के समान प्रसिद्ध कवियों के नाम जोड़े जा सकते हैं। सत्रहवीं शती के अनन्तर राजपूत चारणों ने अपनी विशेषता खो दी और अधिकांश भारत के भाषा कवियों के विशाल समुद्र में पूर्णतया विलीन हो गए; जो कुछ शेष रह गए, वे पुराने अभिलेखों से केवल तथ्य संग्रह करने में अपनी प्रतिभा का हास करते है।
जिस काम को टाड इतनी गौरवपूर्ण शब्दावली में पहले ही कर गए हैं, उसी को पुनः करने की और भारतीय साहित्य पर लगाए गए इस आरोप को कि इसमें ऐतिहासिक ग्रन्थ नहीं हैं, ये राजपूत चारण किस प्रकार पूर्णतया निराधार सिद्ध कर देते हैं, यह संकेत करने की कोई आवश्यकता यहाँ नहीं प्रतीत होती। चारणों द्वारा प्रस्तुत इन वृत्तान्तों का महत्व, जिनमें से कुछ के आधार नवीं शताब्दी तक के पुरातन ग्रंथ है, जितना ही अधिक आँका जाय, उतना ही कम है। यह सत्य है कि ऐसी अनेक कथाएँ हैं, जिनकी प्रामाणि- कता सन्देहास्पद हैं; किन्तु कौन सा तत्कालीन यूरोपीय इतिहास इनसे बरी है? इसमें भारत और उसके मुसलमान आक्रामकों के बीच हुए सम्पूर्ण संघर्षों के युग के राजपूताना का इतिहास भरा हुआ है, जिसको छह शताब्दियों तक विस्तृत अनेक सम-सामयिक लेखकों ने लिखा है। क्या यह आशा करना अनुचित है कि राजपूताना का कोई प्रबुद्ध राजा अनुचित अन्धकार में पड़े हुए