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तिथि के पहले शिवसिंह को समर्पित संभी गीत लिखे १४४६, ई०

भागवत पुराण की प्रतिलिपि की । दुर्गाभक्ति तरंगिणी लिखी । १४७० ई० यदि इन तिथियों को ठीक माना जाय तो इन्होंने अपना. ग्रंथ कम-से-कम ९० वर्ष की वय में पूर्ण किया होगा । विद्यापति के महान् आश्रयदाता राजा शिवसिंह रूपनारायण भी कहे जाते थे, जो उस वंश के अनेक लोगों की सामान्य उपाधि प्रतीत होती है ! इनकी कई पक्षियाँ थीं, जिनमें से कवि ने लखिमा ठकुराइन, प्राणवती और मोदवती को अमर कर दिया है । एक जनश्रुति है कि बादशाह अकबर ने शिवसिंह को किसी अपराध पर दिल्ली बुलाया और विद्यापति ने अपनी दैवी-शक्ति को प्रदर्शन कर अपने आश्रयदाता, को बंधन मुक्त कराया। बादशाह ने विद्यापति को एक काष्ठ-मंजूषा में बन्द कर दिया और नगर की कुछ मंगला मुखियों को सरिता स्नान के लिए भेज दिया । जब सब समाप्त हो गया, बादशाह ने विद्यापति को मंजूषा से सुंक्त किया और जो कुछ हुआ था उसका वर्णन करने के लिए कहा। तब विद्यापति ने तत्काल एक गीत बनाकर सुनाया, जो उनके सर्वाधिक मनोहर गीतों में से एक है । यह परंपरा से हम तक पहुँचा है और इसमें एक स्नान-रता सुंदरी का वर्णन है। इनकी प्रतिभा से चमत्कृत होकर बादशाह ने उनकी प्रार्थना स्वीकार कर शिवसिंह को मुक्त कर दिया । दूसरी जनश्रुति यह है कि कवि ने अपना अंत निकट आया जानकर पवित्र गंगा के तट पर मरना निश्चित किया। मार्ग में उन्होंने सोचा कि धारा तो भक्तों की बेटी है; और उन्होंने उसे अपने पास बुलाया । आज्ञाकारिणी बाढ़ तीन धाराओं में विभक्त हो गई और जहाँ विद्यापति बैठे थे, वहाँ तरंगायित होने लगी । प्रसन्नतापूर्वक इसके पवित्र जल पर दृष्टि-निक्षेप करते हुए, विद्यापति ने अपना शरीर गिरा दिया और दिवंगत हो गए । जहाँ वे मरे, वहाँ एक शिवलिंग निकल' अयिा । यह शिवलिंग और सरिता के चिह्न अभी तक वहाँ दिखाए जाते हैं। यह स्थान दरभंगा जिले में : बाजितपुर कस्बे के निकट है। उस महान वृद्ध गीताचार्य के उपयुक्त ही उसकी यह मृत्यु-गाथा है। :: : : :: : : ... ,. पूर्वी हिंदुस्तान के साहित्य के इतिहास पर विद्यापति को प्रभाव अत्यधिक है । यह उन धार्मिक प्रेम गीतों की रचना की कला में पूर्ण प्रवीण थे, जो | १. यह कहने की कोई आवश्यकता नहीं कि ( यदि इस कंथा पर विश्वास किया जाय तो ) : • अकबर इस कथा की वास्तविक नायक कदापि नहीं हो सकता क्योंकि वह सोलहवीं शती के उत्तरार्ध में हुआ है। |