पृष्ठ:हिंदी साहित्य का प्रथम इतिहास.pdf/९८

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में वैष्णव सिद्धांतों का उपदेश करते हुए बनारस लौट आए । बनारस से यह सर्वत्र अपने सिद्धान्तों का प्रचार करते हुए गया, जगन्नाथ और दक्षिण गए । इन्होंने अपनी प्रथम यात्रा (दिग्विजय ) संवत् १५५४ ( १४९७ ई० ) में उन्नीस वर्ष की वय में पूर्ण की । तदनन्तर इन्होंने ब्रज को अपना केन्द्र बना लिया और गोवर्द्धन में श्रीनाथ की मूर्ति स्थापित की । अपने इस प्रधान केन्द्र से इन्होंने अपनी दूसरी प्रचारात्मक यात्रा सम्पूर्ण भारत में की । ये ३४ वर्ष की वय में बनारस में, दो पुत्रों गोपीनाथ और बिठ्ठल- नाथ, को छोड़कर, संवत् १५८७ ( १५३० ई० ) में दिवंगत हुए । यह बहुत से ग्रंथों के रचयिता हैं । इनके सर्वाधिक प्रशंसित ग्रंथ ये हैं- भागवत पुराण की सुबोधनी नामक टीका, अणुभाव्य और जैमिनीय सूत्र भाव्य । अन्तिम दोनों संस्कृत में हैं । अणुभाष्य विविलओथेका इंडिका में छपं रहा है। हरिश्चन्द्र ने इनके संपूर्ण ग्रंथों की सूची दी है। भाषा में रचित एक प्रामाणिक ग्रंथ 'विष्णुपद के भी रचयिता यही समझे जाते हैं। इनके छन्द रागसागरोद्भव रागकल्पद्रुम नामक काव्य-संग्रह में उद्धृत हैं । और भी जानकारी के लिए देखिए, संख्या ३५ । । | टि०--सहाप्रभु वल्लभाच थे वल्लभ संप्रदाय के प्रवर्तक हैं, न कि राधा- वल्लभी संप्रदाय के। राधाचल्लभ संप्रदाय के प्रवर्तक हित हरिवंश जी हैं । महाप्रभु वल्लभाचार्य को जन्म विहार के चंपारन जिले में बेतिया के पड़ोस में स्थित चौरा गाँव में नहीं हुआ था | इनका जन्म-स्थान मध्यप्रदेश के अन्तर्गत रायपुर जिले का चंपारण्य नामक बन है। यह उस समय हुए थे जब इनके माता-पिता, बहलोल लोदी के आक्रमण के भय से काशी से दक्षिण की ओर भागे जा रहे थे । ग्रियर्सन में यद्यपि सारा विवरण भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ( भारतेन्दु ग्रंथावली, तृतीय भाग, पृष्ठ ६८-७० ) से ही लिया गया है, फिर भी अशुद्धि हो गई है। इन्होंने काशी में मध्वाचार्यं से नहीं पढ़ा था । भारतेन्दु ने इनके गुरु का नाम “काशी के प्रसिद्ध पण्डित माधवानन्द तीर्थ त्रिदंदी दिया है। भागवत की वल्लभाचार्य कृत टीका की नाम ‘सुवोदिनी' है, न कि 'सुबोधनी' । व्रज भाषा में इनकी कोई रचना नहीं। इन्होंने 'विष्णुपद' नामक कोई ग्रंथ ब्रज भाषा में नहीं लिखी। राग सागरोद्भव रागकल्पद्रुम में जो रचनाएँ वल्लभ के नाम से हैं और जो सरोज में उद्धृत हैं, वे किसी दूसरे वल्लभ की हैं, जो वल्लभ संप्रदाय का वैष्णव पुर्व वल्लभाचार्य के पुत्र विट्ठलनाथ का शिष्य था । -सर्वेक्षण ५१८ १. यही हरिश्चन्द्र द्वारा दी हुई तिथि है।। ३. विलसन के अनुसार ‘सुबोधिनी' } , .