पृष्ठ:हिंदुई साहित्य का इतिहास.pdf/१८२

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कबीर [ २७. २१. बिजकरछः सौ चौवन भागों में । आग’, ‘वानी ' आदि अनेक प्रकार के छंद भी हैं, जो उन लोगों के लिए जो इस संप्रदाय के सिद्धान्तों की थाह लेना चाहते हैं एक गंभीर अध्ययन क्रम प्रस्तुत करते हैं। कुछ साषीशब्द और रेखतः कबीर पंथियों को साधारणतः कण्ठ रहते हैं और वे उन्हें उपयुक्त अवसरों पर उद्धृत करते हैं । इन सब रचनाओं की शैली एक आकृत्रिम सरलता से विभूषित है, जो मोहित और प्रभावित करती है : उसमें एक शक्ति और एक विशेष रमणीयता है । लोगों का कहना है कि कबीर की कविताओं में चार विभिन्न अर्थ हैं : माया, आत्मा, मन और वेदों का सरल सिद्धान्त । कबीर की सभी रचनाओं में ईश्वर की एकता में दृढ़ विश्वास और मूर्तिपूजा के प्रति घृणा भाव व्याप्त है । ये बातें उन्होंने जितनी हिन्दुओं के सम्बन्ध में कही हैं उतनी ही मुसलमानों के सम्बन्ध में उन्होंने उनमें पंडितों और शास्त्रों का जितना मजाक बनाया है उतना ही मुल्लाओं और बुराम का 1 सिक्ख संप्रदाय के संस्थापक नानक ने कबीर के सिद्धान्तों से ही अपने सिद्धान्त लिए ; सिक्ख कबीरपंथियों से मिलते भी बहुत हैं, केवल वे उनकी ( कबीर-पंथियों की ) अपेक्षा कट्टर कम होते हैं। उधर पोलाँ द -बालेमी (Paulin de Sain1-Barth6lemy) हमें बताते हैं कि कबीरपंथियों के, जिन्हें वे कबीरी' (Cabirii) और कबीरिस्ती’ ( Cabiristae ) नामों से पुकारते हैं, वम के सारभूत सिद्धान्तों से सम्बन्धितहिन्दुस्तानी भाषा में लिखित निम्नलिखित दो रचनाएँ हैं : १. ‘सतनाम कबीर, रचना जिसका उल्लेख श्री विल्सन द्वारा T १ एच० एच० विल्सन‘एशियाटिक रिसचेंज, जि० १६, ३० ६२