हुआ। वहाँ वे ठहरे और राधा-कृष्ण के स्थान पर सीता-राम की भक्ति का प्रचार किया।
श्री विल्सन[१] ने 'भक्तमाल' की इस विचित्र कथा में इस प्रसिद्ध व्यक्ति की वास्तविक रचनाओं से ग्रहण किए गए या परंपरा द्वारा सुरक्षित अन्य तथ्य जोड़ दिए हैं, तथ्य जो कुछ बातों में ऊपर की बातों से भिन्न हैं, जिन्हें मैं उद्धृत करता हूँ। इन प्रमाणों के अनुसार, तुलसी-दास (सरवरिया शाखा के) ब्राह्मण थे, और चित्रकूट के पास हाजीपुर के निवासी थे। जब वे परिपक्वावस्था को प्राप्त हुए तो वे बनारस में आकर बस गए और वहाँ इस नगर के राजा के मंत्री के कार्य करने लगे। नाभाजी की भाँति अग्रदास के शिष्य जगन्नाथ दास उनके आध्यात्मिक गुरु थे। अपने गुरु के साथ वे वृन्दावन के निकट गोवर्धन गए; किन्तु उसके बाद वे बनारस लौट आए। वहीं[२] पर उन्होंने संवत् १६३१ (ईसवी सन् १५७५) में, केवल इकतीस वर्ष की अवस्था में, अपना 'रामायण' प्रारंभ किया। वे लगातार उसी नगर में रहे, जहाँ उन्होंने सीता-राम का एक मन्दिर बनवाया, और उसी के साथ एक मठ की स्थापना की। यह इमारत अब तक विद्यमान है। उनकी मृत्यु संवत् १६८० (ईसवी सन् १६२४) में जहाँगीर के शासनान्तर्गत[३] हुई।
इसके अतिरिक्त, 'भक्तमाल' का पाठ-विवरण इस प्रकार है :
छप्पय
कलि कुटिल जीव निस्तार हित बालमीकि तुलसी भयो[४]।
त्रेता काव्य निबन्ध करिब सत कोटि रमायन।
इक अक्षर उघरे ब्रह्म इत्यादिक जिन होत परायन।