पृष्ठ:हिंदुई साहित्य का इतिहास.pdf/२६३

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‘१०८ ! हिंदुई साहित्य का इतिहास था ; किन्तु बारह वर्ष की अवस्था में वे अजमेर में सभर, हाँ से कल्यानपुरतत्पश्चात् नराना नगर गए जो साँभर से चार कोस ‘पर और जयपुर से बीस कोस पर बसा हुआ है । उस समय वे सैंतीस वर्ष के थे । वहीं एक आकाशवाणी द्वारा चेताए जाने पर, सgजीवन व्यतीत करने का निश्चय कर वे नराना से पाँच कोस भरामा पहाड़ी चले गएजहाँ, कुछ समय पश्चात् वे अन्तर्द्धन हो गए ( और ) उनके एक भी चिह्न का कोई पता नहीं लगा सका। उनके शिष्यों का विश्वास है कि वे परम पुरुष में लीन हो गए । कहा जाता है यह घटना सन् १६०० के लगभग, अकबर के शासनकाल के अन्त या जहाँगीर के शासनकाल के प्रारंभ में हुई । नराना में, जो दा-पंथी संप्रदाय का प्रधान स्थान है, अब भी दादू के बिछने और पृथसंग्रह सुरक्षित हैं जिनका ये संप्रदाय वाले आदर करते हैं। पहाड़ी पर एक छोटी समाधि इस संस्थापक के अन्तर्बान होने वाले स्थान का चिह्न है । इस संप्रदाय के सिद्धान्त भाखा में विभिन्न ग्रंथों में सम्मिलित जिनमें ऐसा प्रतीत होता है कि कबीर की रचनाओं के बहुत -से अंश सम्मिलित हैं। हर हालत में ये रचनाएँ आपस में बहुत समान हैं। बॉर्ड ने इस लेखक की ‘दादू की बाणी’ का उल्लेख किया है। यह रचना जयपुर की बोली में लिखी गई है । प्रसिद्ध एच० एच०

’ २ यह अवतरण कलकते की एशिवाटिक सोसायटी के मुखपत्रअंक जून१३७ से लिया गया है उसमेंजिसे अभी उद्धृत किया गया है, दादू पंथी संप्रदाय का विवरण मिलेगासाथ ही श्री० विल्सन के विवरण ( मैग्वायर ), ‘एशियाटिक रिसर्वेज, ० १७६० ३०२ आदि । ३ ‘हिन्दुओं का इतिहास आदि, जि० २, ०४८१