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भूमिका

नाम 'दक्खिनी' (दक्षिण की) ग्रहण किया। मध्ययुगीन फ्राँस को 'उई' (oil) और 'ओक' (oc) की भाँति, इन दोनों बोलियों का[१] भारत में प्रचार हो गया है, एक का उत्तर में, दूसरी का दक्षिण में, जहाँ कहीं भी मुसलमानों ने अपने राज्य स्थापित किए, जब कि पुरानी बोली का प्रयोग अब भी गाँवों में, उत्तरी प्रान्तों के हिन्दुओं में, होता है;[२] किन्तु यद्यपि शब्दों के चुनाव में ये बोलियाँ एक दूसरे से भिन्न हैं, तो भी, उचित बात तो यह है कि वे अपनी-अपनी वाक्य-रचना-पद्धति के अंतर्गत एक ही और समान बोलियाँ हैं, और वे हमेशा 'हिन्दी' या 'हिन्द की'[३] के अनिश्चित नाम से तथा यूरोपियन लोगों द्वारा 'हिन्दुस्तानी' के नाम से पुकारी जाती हैं; और जिस प्रकार जर्मन लेटिन या गोथिक अक्षरों में लिखी जाती है, उसी प्रकार स्थान और व्यक्तियों की रुचि के अनुसार हिन्दुस्तानी[४] लिखने


  1. सेडन (Seddon) का ठीक ही कहना है ('ऐड्रेस ऑन दि लैंग्वेज ऐंड लिट्‌रेचर ऑव एशिया'— एशिया की भाषा और साहित्य पर भाषण) कि उर्दू और दक्खिनी का हिन्दुई के साथ वही संबंध हैं जो उइगूर (Ouīgour) का तुर्की और सैक्सन का अँगरेज़ी के साथ है।
  2. फ़ारसी और अरबी शब्दों के मिश्रण से रहित हिन्दी 'ठेठ' या 'खड़ी बोली' (शुद्ध भाषा) कही जाती है; ब्रज प्रदेश की ख़ास बोली, 'ब्रज भाखा' उन आधुनिक बोलियों में से है जो पुरानी हिन्दुई के सब से अधिक निकट हैं; अंत में भी 'पूर्वी भाखा', उसी बोली का एक दूसरा प्रकार जो दिल्ली के पूर्व में बोली जाती है।
  3. संक्षेप में, यह स्पष्ट है, कि हिन्दुस्तानी पुरानी हिन्दुस्तानी या हिन्दुई, और आधुनिक हिन्दुस्तानी में विभक्त है। हिन्दुई का काल वहाँ से प्रारंभ होता है जहाँ से संस्कृत का समाप्त होता है। आधुनिक का तीन बोलियों में उप-विभाजन है, दो उत्तर में, एक दक्षिण में। उत्तर की है उर्दू या मुसलमानी बोली, और ब्रज भाखा या हिन्दुओं की बोली (ठीक, या लगभग, पुरानी हिन्दुई)। दक्षिण की बोली या दक्खिनी का प्रयोग केवल मुसलमानों द्वारा होता है।
  4. हिन्दुस्तानी अरबी या भारतीय अक्षरों में लिखी जाती है। प्रथम या तो नस्तालीक या नस्ख़ी, या शिकस्ता है। नस्तालीक का सबसे अधिक प्रयोग होता है। नस्ख़ी का दक्षिण के कुछ प्रदेशों में प्रयोग होता है। शिकस्ता घसीट नस्तालीक अक्षर है। भारतीय अक्षर या तो देवनागरी या कैथी नागरी है ; नागरी के और भी थोड़े-बहुत विभिन्न रूप हैं। औरों के अतिरिक्त, कबीर की कविताओं का अक्षर कैथी नागरी है : कलकत्ते से कुछ पुस्तिकाएँ, छापने के लिए उसका व्यवहार किया गया है। पत्र और कुछ हस्तलिखित ग्रंथ घसीट नागरी अक्षरों में लिखे जाते हैं।