पृष्ठ:हिंदुई साहित्य का इतिहास.pdf/३१०

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पथीराज F १५५ पृथ्वीराज परचौ प्रगट तन शंख चक्र मंडित कियो । आवेर अछित कृर्म को द्वारकानाथ दर्शन दियो । २१६ ' टीका राजा पृथीराज अपने गुरु कृष्णदास के साथ द्वारिका ती यात्रा के लिए तैयार हुए । उनके मंत्री ने गुरु के कान में कहा कि इस यात्रा से राजा के कार्यो में बाधा पड़ेगी, किन्तु उसकी यह इच्छा नहीं थी कि उसने उनसे जो कहा था वह महारानी को मालूम हो । प्रातः जब राजा अपने साथियों के साथ चलने के लिए तैयार हुआ, तो गुरु ने उनसे कहा : यहीं रहो, तुम अपने महल में ही द्वारावति नाथ देखोगे, तुम गोमती में स्नान करोऔर तुम अपनी भुजा पर शंख औौर चक्र की छाप देखोगे ।’ राजा ने कहाः ‘अच्छी बात है; किन्तु गुरु के शब्दों का प्रभाव कम दिखाई देगा ?' तीन दिन इसी प्रकार व्यतीत हो गएऔर पृथीराज द्वारिका ‘न पहुँचे, तो ए राजा पर कृपा करने के लिएगोमती को अपने सिर पर रख कर, और अपनी ग़ल में शंख तथा चक्र दा कर द्वारिका से चले। वे क्षण भर में राजा के द्वार पर पहुँच गए, और उनके गुरु के स्वर में ही स्निग्व वाणी से पुकार कर कहाः 'हो पृथीराज । राजा आाश्चर्यचकित हो दौड़े, और भगवान को देखा । तब कृष्ण ने गोमती गिरा कर पृथीराज से उसमें स्नान करने के लिए कहा। वे उनकी आज्ञा का पालन भी न कर पाए थे कि शंख औौर चक्र उनके शरीर पर छप गए । यद्यपि रानी भी आईं, वे भगवान् को न १ यह मूल छप्पय ‘भक्तमालके १८३ ई’ ( नवलकिशोर , लखनऊ ) से लिया गया है। ।--अनु० २ गोमती, शब्दार्थ ‘घूमती हुई, कुमायूं के पर्वतों में उत्तर से निकलती , और बनारस से नीचे गंगा में मिल जाती है। ऐसा प्रतीत होता है कि द्वारिका के पास से जाने वाली गोमतों कोई दूसरी है ।