पृष्ठ:हिंदुई साहित्य का इतिहास.pdf/३२४

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बख्तावर [ १६६ यद्यपि वे कुछ ऐसे शोचनीय सिद्धान्त प्रस्तुत करते हैं जिनकी जितनी निन्दा की जाय थोड़ी है। मैं जो कुछ देखता हूँ शून्य है। आास्तिकता और नास्तिकता, माया ( दृश्य ) और ब्रह्म ( अदृश्य ), सब मिथ्या है, सब भ्रम है । स्वयं जगत् और ब्रह्मांड, सप्तदीप और नवखण्ड, आकाश औौर पृथ्वी, सूर्य और चन्द्र, ब्रह्मा, विष्णु और शिव, खुर्भ ौर शेषगुरु और उसका शिष्य, व्यक्ति और जाति, मंदिर श्रौर देवता, रीति-रस्मों का पालनप्रार्थना करना, यह सब शून्य है । सुनना, बोलना औौर विचार करना, यह सत्र कुछ नहीं है, और स्वयं बास्तविकता का अस्तित्व नहीं है । तो फिर प्रत्येक ( व्यक्ति ) अपने आप पर ही ध्याननिष्ठ रहता है, और किसी दूसरे पर नहीं, क्योंकि वह केवल अपने में ही सबको पाता है ।..अपना ही चेहरा दर्पण में देखने की भाँति, मैं दूसरों में अपने को देखता हूं: यह तो एक समझ को भूल है कि मैं जो कुछ देखता हूँ बह मेरा रूप नहींवरन् किसी दूसरे का है । जो कुछ तुम देखते हो वह केवल तुम हो, तुम्हारे स्वयं मातापिता का कोई वास्तविक आस्तित्व नहीं हैं । तुम्हीं ब!लक और बूढ़े, बुद्धिमान और , पुरुष औौर स्त्री हो...तुम्हों मारने वाले और मृत, राजा और प्रजा हो.... तुम्हीं विलासी और साधु, रोगी और स्वस्थ हो, संक्षेप में जो कुछ तुम देखते हो वह तुम्हीं हो, ठीक वैसे ही जैसे पानी के बुदबुदे और उसकी लहरें पानी से भिन्न दूरी वस्तु नहीं हैं । जय हम स्खन देखते हैं, हम समझते हैं वास्तविक वस्तुएँ देख रहे हैं, हम जागने पर अपने को भ्रम में पाते हैं ! लोग अपने बम पड़ोसियों को सुनाते हैं, किन्तु उनके दुहराने से क्या लाभ ? यह तो बास के तिनके उड़ाने के समान है। मैं केवल ‘सुनि’ ( ‘शून्य’) सिद्धान्त पर ध्यान लगाता हूँ, मैं न तो पुण्य जानता हूँ और न पrष । मैंने पृथ्वी के राजाओं को देखा