पृष्ठ:हिंदुई साहित्य का इतिहास.pdf/३३४

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बिल्व मंगल [ १७४ के कमरे में पहुँचने के लिए वे आंगन में कूद पड़े। उनके कूदने की आवाज ने सत्र को जगा दिया, और चिंतामणि की नींद टूट गई । चोर श्राप समझ , उसने दीप जलाया, और बिल्व मंगल को देख कर आश्चर्ध- किंत हुई; तथा सबकुछ देख कर अत्यन्त दुःखी हुई । अपने प्रेमी को स्नान कराकर, उसने सूखे कपड़े पहिनाए , और अपने कमरे में ले गई । उसने उनसे पूछा कि नदी के इतनी चट्टी रहने पर भी वे ऐसे समय पर कैसे आ सके। उन्होंने कहा : 'तुम्हीं ने तो मेरे लिए एक नाव भेज दी थी, और मैंने दरवाजे पर एक रस्सी लटकती हुई पाई ' इतना सुनते ही चिंतामणि तेजी से दौड़ी और चिल्ला कर कहा : तुम इतना झूठ क्यों बोलते हो १५ ज्यों ही वह आगे बढ़ी, उसने सप देखाऔर नाव की बात भी उसे अधिक ठीक नम जान पड़ी । तब उसने विल्व मंगल से कहा : मैं तुम्हें तब बुद्धिमान समाँगी जब कि तुम्हें जैसा प्रेम मेरे हाड़ और चाम से है वैसे ही कृष्ण के प्रति हो , शंघ से तुम दुम हो, और मैं अपनी स्वामिनी हूं । ये शब्द कहने के बाद उसने अपने हाथ में बीन ली, और अपने को बिल्व मंगल से अलग करते हुए कृष्ण और गोपियों को रासक्रीड़ा पर एक नया पद गाया । बिल्व मंगल के मन की आंखें खुल गईं, जैसे रात्रि के बाद प्रभात । उनके मन में भौतिक पदार्थ के प्रति विरक्ति उत्पन्न हो गई । प्रातकाल चिंतामणि निकलो, और एक तरफ़ चली गई हैं चिल्व मंगल दूसरी ओर चले गए । वे सोमगिरि के शिष्य हो गएऔर पूरे एक वर्ष उनके पास रहे । परमात्मा के नित नए सौन्दर्यरस से पूर्ण प्रन्थों का पारायण करने के बाद, वे वृन्दावन गए । मार्ग में उन्होंने एक तालाब के किनारे रुक कर बहाँ निवास किया, और किसी बलु की ओर देखा तक नहीं । वृन्दावन नगर में उनका बड़ा यश पैलदा । एक धनाट्य साहूकार की पत्नी इस तालाब में नहाने आई; उसके सौन्दर्य पर मोहित होकर वे पीछे लग गए ।