पृष्ठ:हिंदुई साहित्य का इतिहास.pdf/३३६

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विल्ष मंगल L १८१ और बिल्व मंगल के चरणों पर गिरते हुए कहा : ‘क्या मैंने साधु को कोई कष्ट पहुँचाया है ? यहाँ आइएसाधुमुझसे जो सेवा हो सकेगी कल गा ।' सम्र ने उत्तर दिया : ‘तुमने तो वैसे ही मेरी बड़ी भारी सेवा कर दी है ।' तब त्रिल्व मंगल ने फिर वृन्दावन का मार्ग ग्रहण किया । रास्ते में, कभी धूप, कभी छाया, कभी भूखकभी जो कुछ मिल गया खा लिया । जब सूर्य की किरणें उन्हें पीड़ित करती थीं, तो प्रभु ( कृष्ण ) उनका हाथ पकड़ कर छाया में ले जाते थे। बिल्व मंगल हाथ को मृदुता पहिचान कर उसे छोड़ना न चाहते थे । बिल्व मंगल के वृन्दावन पहुँचने के बाद प्रभु किसी परिचित के द्वारा उनके पास दूध और उबले हुए चावल भिजवा देते थे । इन्हीं बातों के बीच में बिल्व मंगल ने देखने को शक्ति को फिर से प्राप्त करने की इच्छा प्रकट की, ताकि उन्हें कृष्ण के सुन्दर मुख के चिंतन का लाभ प्राप्त हो सके। भगवत् ने, उन्हें प्रसन्न करने के लिए, मुरली ऐसी ध्वनि में बजाई जो श्रवणमार्ग द्वारा बिल्व मंगल तक पहुँचीऔर तब बिल्व मंगल ने मंगलाचरण’ नामक पुस्तक का अपने मुग्त्र से उच्चारण किया, जिसमें श्रेष्ठता का अमृत भरा हुआ है । संस्कृत श्लोक चिंतामणिर्जयति सोमगिरिज़ुरुयेशिक्षा गुरुश्च भगवान शिघिपिच्छमौलिः ॥ यत्पादकल्पतरुपल्लवशेखरेg लीला स्वयं वररसंलभतेव य श्रीः । कमल पुष्प की भाँति श्रॉखें खुल जाने के बाद, उन्होंने कुछ दिन शान की बातें प्राप्त करने में व्यतीत किए। इसी बीच में चिंतामणि उनके पास पहुँची, नौर थापस में री हुए वे एक दूसरे से बातें करने लगे । इसी समय प्रभु ने उनके खाने के लिए दूध और उबले हुए १ यह श्लोक तथा मूल गप्पब दोनों मुंशी नवलकिशोर प्रेस के १३ ई० में प्रकाशित भक्तमाल' ( प्रथम संस्करण ) से लिए गए हैं । ।—अनु०