पृष्ठ:हिंदुई साहित्य का इतिहास.pdf/३७०

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मीरा य मीरां बाई ( २१५ कवित। पल काटों इन नयनन के गिरिधारी बिना पल अंत निहारें । जीभ कटें न मजे ट दन बुद्धि अटें हरिनाम चिमारें । मीग कहै जरि जल फियो पद पंकज चिन कल अंत न पाएं । शीश नवै ब्रजरा घिना वह शीदि काटि जुबां किन इमैं ॥ भंक्षेप में, साम के बारयार कहने पर भी मीरा ने पूजा न की । तब उन्होंने न द स्वर में गणा से कहा : यह व काम की नहीं है । श्र न ही उसने जवाब दिया है । आगे वह और क्या नहीं कर सकती १" यह त सुन कर राजा ने उन्हें अपने महल में न बुला कर दूसरे में उनके रहने का प्रबंध कर दिया । मीरग उसी में प्रसन्न थीं । अपनी प्रसन्नता में उन्होंने अपने प्रियतम की मूर्ति स्थापित की , और साधु संग में जीवन व्यतीत करने लगीं-। उनकी रौनट ने जाकर उन्हें समझाया । : ‘मेरी बहन, यदि तुम साधुसंग करती , तो तुम्हारे दोनों फुलों को कलंक लगेगा । उस समय निया तुम्हारे श्वसुर और पिता पर हंसेगी ' मीरा ने कहा, ‘जो लोग बदनामी से डरते हैं उनसे अलग रहना चाहिए । साधु तो मेरे जीवन के साथ बँधे हैं ।' जब राजा ने यह बात सुनी, तो उन्होंने उनके पास चरणामृत' के रूप में तेज़ विष का एक प्याला भेजा ने मीरा ने पानी का प्याला समझ कर ले लिया और उसे पी गई। । किन्तु विप का उन पर कोई प्रभाव न बेचा 1 १ ये पंक्तियाँ संभवतः .रा के काव्य से अद्भुत हैं। ( यह सवैया है, जो १८८३ में नवलकिशोर प्रेर, लखनऊ से प्रकाशित ‘भक्तमाल' में में रासंबंधो छप्पर्थ की टीका से उद्धृत किया गया है-अनु) ३ शब्दशः, पैरों का अत। यह बह जल होता है जिसमें कोई सन्त अपने पैर डुबा देता है ।