पृष्ठ:हिंदुई साहित्य का इतिहास.pdf/४२१

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२६६ ] हिंदुई साहित्य का इतिहास ‘सिंहासन’ के अन्य अनेक संस्करण हैं, जिनमें से एक कत को का है, १८३, बड़ा अठपेजीजो , और , ड० गिलक्रिाइस्ट के संरक्षण में कैथी-नागरी अक्षरों में प्रकाशित संस्करण के विपरीत या, और भी उचित रूप में, उनकी प्रणाली के अनुसार सुधारे हुएशुद्ध देवनागरी अक्षरों में छपा है । यह संस्करण पहलों की अपेक्षा अच्छा है, क्योंकि उसकी शैली सुधरी हुई है। १८४३ में आगरे, और १८४६ में इन्दौर से भी बह छपा है। अंत में सैयद अब्दुल्ला ने १८६६ में उसका एक संस्करण लंदन से प्रकाशित किया, क्योंकि यह पुस्तक १८६६ से भारतीय सिविल सर्विस के विद्यार्थियों के लिए परीक्षापुस्तक के रूप में स्वीकृत है । स्वर्गीय बेरन फ्रेंच में लेसकालिए (baron Lescalicer ) ने 'वोन अर्दाशते( Thone enchantई, जादुई सिंहासन ) शीर्षक के अंतर्गत एक फ़ारसी कहानी का अनुवाद किया है जो इसी प्रकार की कथा पर आधारित है , किन्तु जो तत्वतः हिन्दुस्तानी कहानी से भिन्न है । २. ‘बैताल पचीसी ’ 3 या ‘वेताल पंचबिंशत्ति अर्थात् एक प्रेतात्मा की पच्चीस कहानियाँ। पहली की भाँति, यह रचना सुरत कवीश्वर द्वारा संस्कृत से ब्रज भाषा में अनूदित हुई अरि उस बोली से हिन्दुस्तानी में । इस द्वितीय रचना में मजहर अली स्वर्ण विला ने लल्लू की सहायता की, अथवा उचित रूप में रखते हुए उन्होंने स्वयं विला की सहायता की । इस प्रकार विला ही इस रूपान्तर के प्रधान रचयिता हैं । साथ ही फोर्ट विलियम कॉलेज में हिन्दुस्तानी के तत्कालीन प्रोफ़ेसर जेम्स मोटट (James Mouat) ने इस रचना को दुहराने और उसमें से प्रचलित हिन्दुस्तानी में १ बैताल पच्चीसी