पृष्ठ:हिंदुई साहित्य का इतिहास.pdf/५४४

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परिशिष्ट६ इस्a संत सरोरुह खंड को पदमावति सुख जनकन रवि .। जयदेब कत्रि मृप चक्करै खंड मंडलेश्वर आानि कत्रि । टीका किंतु विलु५ ग्राम तामें भये कविराज भर यो रसराज हिये मनमन चाखिये । दिन दिन प्रति रुख़ रूखतर जाइ रहे गहे एक गुदरी कमंडल को राखिये ।‘कही देवें वित्र सुता जगन्नाथ देवदू को भयो याको समयं चल्यो देन प्रभु भखिये । रसिक जयदेब नाम मेरोई स्वरूप ताहि देवी तत्काल ग्रहो मेरी कहीं सखिये । चल्यो द्विज तहां जहां बैठे कविराज राज अहो महाराज मेरी सुता यह लीजिये | कीजिये चिर अधिकार विस्तार जाके ताही को निहारि सुकुमारि यह दीजिये । जगनाथ देवजू को श्रा - प्रतिपाल करो ट् रौ मति व हिये नतो दोष भीजिये । उनको जार सोहैं । हमको पार एक तात फिरि जावौ नृहै कहा कहि खीजिये।' मुता सों कइत तुम बैठी रौ याही ठौर धाज्ञा शिौर मेरे नहीं जात टारिये चयौ अनखाई समझइ हरे वातनि सों मन समु िकहा की शोच झरिये । बोले द्विज बालकी सों आपनो बिर क ध हुिये ध्यान दें ताव न सँभारिये । बोली कर बोरि मे जोर न चलत कब चाहो सोई होटु यह वार फेरे डरिये ।२ जानी जब भई तिया किंथ प्रभु जोर मोंगे तौथे एक झोपड़ी की छाया करि लीजिंथे । भई

तय छाया श्याम सेवा पधराइ लई नई एक पोथी’ मैं बनाऊं मन

कीजिये । भयो , प्रगट गीत सरस गोविंद को, मन में प्रसंग शीश १ इस गाँव के वास्तविक नाम और रथान के बारे जोन्स और कोलभ क एक मत में नहीं हैं । देखिएलासेन ( Lassen ) : ‘गीत गोविंद, प्रस्तावना, ३० १। ". २ प्रदक्षिणा-धार्मिक दृष्टि से किसी व्यक्ति या वस्तु के चारों ओर घूमना।

  • क्योंकि वह ईश्वर की दृष्टि द्वारा पवित्र हो गई थी।