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हिंदुई साहित्य का इतिहास


पाँचवें में वे रखी जानी चाहिए जिनमें ईश्वर-प्रार्थना जो दीवानों और बहुत-सी मुसलमानी रचनाओं के प्रारम्भ में रहती है, मुहम्मद और प्रायः उनके बाद के इमामों की प्रशंसा करने वाली कविताएँ, और अंत में वे कविताएँ जिनमें कवि द्वारा शासन करने वाले सम्राट् या अपने आश्रयदाता का यशगान रहता है। पिछली रचनाओं में प्रायः अतिशयोक्ति से काम लिया गया है। अन्य अनेक बातों की तरह हिन्दुस्तानी कवियों ने इस बात में भी फ़ारसी वालों का पूर्ण अनुकरण किया है। सेल्यूकिड (Seljoukides) और अताबेक (Atabeks) वंश के दर्प-पूर्ण शाहंशाह थे जिनके अंतर्गत कृपा ही के भूखे कवियों ने इन शाहंशाहों की तारीफ़ों के पुल बाँध दिए, अपनी रची कविताओं में आवश्यकता से अधिक अतिशयोक्तियों का प्रयोग करने लगे जिनसे विषय संकीर्ण और जी उबा देने वाले हो गए।[१] ये कवि ऐसी प्रशंसा करने में कोई संकोच नहीं करते जो न केवल चापलूसी की, वरन् कुत्सित रुचि और उसी प्रकार बुद्धि की सीमा का उल्लंघन कर जाती है। अपने-अपने चरित-नायकों का चित्र प्रस्तुत करने के लिए दृश्यमान् जगत से ही इन कवियों की कल्पना को यथेष्ट बल नहीं मिलता, वे आध्यात्मिक जगत् में भी विचरण करने लगते हैं। उसी प्रकार, उदाहरण के लिए, उनके शाहंशाह की इच्छा पर प्रकृति की सब शक्तियाँ निर्भर रहती हैं। वही सूर्य और चन्द्र का मार्ग निर्धारित करती है। सब कुछ उनकी आज्ञा के वशीभूत है। स्वयं भाग्य उनकी इच्छा का दास है।[२]

मुसलमानी रचनाओं के छठे भाग में व्यंग्य आते हैं। दुनिया के सब


  1. गेटे (Goethe), Ost. West, Divan (पूर्वी पश्चिमी दीवान)
  2. वैसे भी क्लैसीकल लेखकों में ऐसी अतिशयोक्तियाँ पाई जाती हैं। क्या वर्जिल ने अपने 'Géorgiques' के प्रारंभ में सीज़र को देवताओं का स्वामी नहीं बताया? क्या उसने टेथिस (Téthys) की पुत्री को स्त्री रूप में नहीं दिया? क्या इस बात की इच्छा प्रकट नहीं की कि उसके सिंहासन को स्थान प्रदान करने के लिए स्कौरपियन (राशिचक्र का प्रतीक-अनु॰) का तारा-मंडल आदरपूर्वक मार्ग से हट जाय।