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हिंदुई साहित्य का इतिहास

'वरदाई' कहे जाने वाले गायकों द्वारा गाए जाने वाले हिन्दुस्तानी गाने रहते हैं।[१]

अंत में वर्णनात्मक कविताओं के सातवें भाग में ऋतुओं, महीनों, फूलों, मृगया आदि से संबंधित अनेक कविताएँ रखी जाती हैं जिनमें से कुछेक इस जिल्द में दिए गए अवतरणों में मिलेंगी।

मैं यहाँ बता देना चाहता हूँ कि हिन्दुस्तानी छंद-शास्त्र (उरूज़) के नियम, कुछ थोड़े से अंतर के साथ, वही हैं जो अरबी-फ़ारसी के हैं, जिनकी व्याख्या मैंने एक विशेष विवरण (Mémoire) में की है।[२] उर्दू और दक्खिनी की सब कविताएँ तुकपूर्ण होती हैं; किन्तु जब पंक्ति के अंत में एक या अनेक शब्दों की पुनरावृत्ति होती है तो तुक पूर्ववर्ती शब्द में रहता है। तुक को 'काफ़िया', और दुहराए गए शब्दों को 'रदीफ़' कहते हैं।[३]

अपने तज़्‌किरा के अंत में मीर तक़ी ने रेख़ता या विशेषतः हिन्दुस्तानी कविता के विषय पर जो कहा है वह इस प्रकार है।


  1. कुछ वर्ष पूर्व, कलकत्ते में एक रईस बाबू का निजी थिएटर था, जो 'शाम-बाज़ार' नामक हिस्से में स्थित उसके घर में था। भद्दी भाषा में लिखी गई रचनाएँ हिन्दू स्त्री या पुरुष अभिनेताओं द्वारा खेली जाती थीं। देशी गवैए, जो लगभग सभी ब्राह्मण होते थे, वाद्य-संगीत (औरकैस्ट्रा) प्रस्तुत करते थे, और अपने राष्ट्रीय गाने 'सितार', 'सारंगी', 'पखवाज़' आदि नामक बाजों पर बजाते थे। अभिनय ईश्वर की प्रार्थना से आरंभ होता था, तब एक प्रस्तावना के गान द्वारा रचना का विषय बताया जाता था। अंत में नाटक का अभिनय होता था। ये अभिनय बँगला में, जो बंगाल के हिन्दुओं द्वारा प्रयुक्त विशेष भाषा है, होते थे। ('एशियाटिक जर्नल', जि॰ १९, नई सीरीज, पृ॰ ४५२, as. int.)
  2. 'ज़ूर्ना एसियातीक' (Journal Asiatique), १८३२
  3. 'Rhétorique des peuples musulmans' (मुसलमान जातियों का काव्यशास्त्र) पर मेरा चौथा लेख देखिए, भाग २३।