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हिंदुई साहित्य का इतिहास

केवल उसी समय जब कि वह हिन्दी भाषा की प्रतिभा के अनुकूल हो, करना चाहिए, वैसे उदाहरणार्थ गुफ़्त व गोई, 'बातचीत'। ५. 'इल्‌हाम' नामक शैली में लिखा जा सकता है। यह प्रकार पुराने कवियों द्वारा बहुत पसन्द किया जाता है; किन्तु वास्तव में उसका प्रयोग केवल कोमलता और संयम के साथ होता है। उसमें ऐसे शब्दों का प्रयोग किया जाता है जिसके दो अर्थ होते हैं, एक बहुत अधिक प्रयुक्त (क़रीब) और दूसरा कम प्रयुक्त (बईद) और कम प्रयुक्त अर्थ में उन्हें इस प्रयोग में लाना कि पाठक चक्कर में पड़ जाय।[१] ६. एक प्रकार का मध्यम मार्ग ग्रहण किया जा सकता है, जिसे 'अन्दाज़' कहते हैं। इस प्रकार में, जिसे मीर ने स्वयं अपने लिए चुना है, तजनीस (Alliteration), तरसीअ़ (Symmetry), तशबीह (Similitude), सफ़ाई गुफ़्तगू (Belle diction), फ़साहत (Eloquence), ख़याल (Imagination) आदि का प्रयोग अवश्य होना चाहिए। मीर का कहना है कि 'काव्य-कला के जो विशेषज्ञ हैं वे मैंने जो कुछ कहा है उसे पसन्द करेंगे। मैंने गँवारों के लिए नहीं लिखा; क्योंकि मैं जानता हूँ कि बातचीत का क्षेत्र व्यापक है, और मत विभिन्न होते हैं।'

जहाँ तक गद्य से संबंध है, उसके तीन प्रकार हैं : १. वह जो 'मुरज्जज़' या काव्यात्मक गद्य (Poetic prose) कहा जाता है, जिसमें बिना तुक के लय होती है; २. जिसे 'मुसज्जा' या विकृत रूप में 'सजा' कहते हैं[२]; ३. जिसे 'आरी' कहते हैं, जिसमें न तो तुक होती है और न छन्द। अन्तिम दो का सबसे अधिक प्रयोग होता है; कभी कभी ये दोनों


  1. 'इल्‌हाम' नामक अलंकार पर, देखिए, 'Rhétorique des nations musulmances.' (मुसलमान जातियों का काव्य-शास्त्र) पर मेरा तीसरा लेख, पृ॰ ९७।
  2. इस तुक युक्त गद्य के तीन प्रकारों की गणना की जाती है। इस संबंध में 'Rhètorique des nations musalmanes' (मुसलमान जातियों का काव्य-शास्त्र) पर मेरा चौथा लेख देखिए, भाग २२।