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भूमिका

मिला दिए जाते हैं। 'नज़्म' के, जो कविता के लिए प्रयुक्त सामान्य शब्द है, विपरीत गद्य को 'नस्र' कहते हैं। गद्य सामान्य हो तुकयुक्त हो, अधिकतर सामान्यतः पद्यों-सहित होता है, तथा जो प्रायः उद्धरण होते हैं।

अब मैं, जैसा कि मैंने हिन्दुई के संबंध में किया है, निम्नलिखित अकारादिक्रम में हिन्दुस्तानी रचनाओं के विभिन्न प्रकारों के नामों पर विचार करता हूँ।

'इंशा' अर्थात्, 'उत्पत्ति'। यह हमारे पत्र-संबंधी रिसाले से बहुत-कुछ मिलता-जुलता पत्रों की भाँति लिखी गईं चीज़ों का संग्रह है। अनेक लेखकों ने इस प्रकार की रचना का अभ्यास किया है, और गद्य और पद्य दोनों में ही रूपकालंकार के लिए अपनी अनियंत्रित रुचि प्रकट की है। मुझे यह कहने की आवश्यकता नहीं कि उसमें मौलिक, और विशेषतः उद्धृत पद्यों का बाहुल्य रहता है।

'क़सीदा'। इस कविता में, जिसमें प्रशंसा (मुदा), या व्यंग्य (हजौ) रहता है, एक ही तुक में बारह से अधिक (सामान्यतः सौ) पंक्तियाँ रहती हैं, अपवाद स्वरूप पहली है, जिसके दो 'मिसरों' का तुक आपस में अवश्य मिलना चाहिए, और जिसे 'मुसर्रा' अर्थात्, तुक मिलने वाले दो 'मिसरे', और 'मतला' कहते हैं। अंत, जिसे 'मक़ता' कहते हैं, में लेखक का उपनाम अवश्य आना चाहिए।

'क़िता', 'टुकड़ा', अर्थात् चार मिसरों, या दो पंक्तियों में रचित छन्द जिसके केवल अंतिम दो मिसरों की तुक मिलती है। पद्य मिश्रित गद्य-रचनाओं में प्रायः उनका प्रयोग होता है। 'क़िता' के एक छन्द को 'क़िताबन्द' कहते हैं।

'क़ौल' एक प्रकार का गीत, 'आइने अकबरी' के अनुसार, जिसका व्यवहार विशेषतः दिल्ली में होता है।[१]


  1. जि॰ २, पृ॰ ४५९