पृष्ठ:हिंदुई साहित्य का इतिहास.pdf/७

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रख कर आलोचनात्मक दृष्टि से परखने का प्रयास नहीं किया, और न काल-विभाजन का क्रम ही ग्रहण किया (यद्यपि, जैसा कि उनकी भूमिका से ज्ञात होता है, वे इस क्रम से अपरिचित नहीं थे और कुछ व्यावहारिक कठिनाइयों के कारण ही वे ऐसा करने में असमर्थ रहे), तो भी उनके ग्रन्थ का मूल्य किसी प्रकार भी कम नहीं हो जाता, विशेष रूप से उस समय जब कि 'विनोद' (१९१३ ई॰) की रचना के समय तक इतिहास-प्रणयन की तासी शैली अबाध रूप से प्रचलित रही। भाषा-संबंधी कठिनाई होने के कारण, ग्रियर्सन को छोड़ कर, हिन्दी साहित्य के अन्य किसी इतिहास-लेखक ने तासी द्वारा संकलित सामग्री की परीक्षा और उसका उपयोग भी नहीं किया। ऐसी परिस्थिति में तासी के इतिहास-ग्रंथ में से हिन्दुई (आधुनिक अर्थ में हिन्दी) से संबंधित अंश का प्रस्तुत अनुवाद निश्चय ही अपना महत्व रखता है।

तासी ने हिन्दुई और हिन्दुस्तानी शब्दों का जिस अर्थ में प्रयोग किया है उसके संबंध में मैं अपनी ओर से कुछ न कह कर पाठकों का ध्यान मूल ग्रन्थ की भूमिकाओं की ओर आकृष्ट करना चाहता हूँ। ग्रन्थ लिखते समय उनका क्या दृष्टिकोण था और उसकी उन्होंने किस प्रकार रूपरेखा तैयार की, इसका परिचय भी उनकी भूमिकाओं में मिल जायगा। अतएव उसकी पुनरावत्ति की यहाँ कोई आवश्यकता नहीं है।

मुझे इस बात का दुःख है कि प्रयत्न करने पर भी तासी का जीवन-संबंधी विवरण उपलब्ध न हो सका। इस समय उन्हीं के उल्लेखानुसार केवल इतना ही कहा जा सकता है कि वे फ़्रांस के एक राजकीय और विशेष स्कूल में जीवित पूर्वी भाषाओं के प्रोफ़ेसर, और फ़्रांसीसी इन्स्टीट्‌यूट, पेरिस, लंदन, कलकत्ता, मद्रास और बंबई की एशियाटिक सोसायटियों, सेंट पीटर्सबर्ग की इंपीरियल एकेडेमी ऑव साइन्सेज़, म्यूनिख़, लिस्बन औौर ट्‌यूरिन