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भूमिका

प्रति छन्द में तीन, चार, पाँच, छः, सात, आठ और दस मिसरे होते हैं, और जो फलतः 'मुसल्लस', 'मुरब्बा', 'मुख़म्मस', 'मुसद्दस', 'मुसब्बा', 'मुसम्मन' और 'मुअशर' कहे जाते हैं। 'मुख़म्मस' का बहुत प्रयोग होता है। कभी-कभी किसी दूसरे लेखक की ग़ज़ल के आधार पर इस कविता की रचना की जाती है। उस समय छन्द के पाँच मिसरों में से अंतिम दो मिसरे ग़ज़ल की हर पंक्ति के होते हैं। इस प्रकार पहले की वही तुक होती है जो ग़ज़ल की पहली पंक्ति की, प्रथानुसार जिसके दो मिसरों की आपस में तुक मिलनी चाहिए। दूसरे छन्द तथा बाद के छन्दों में, पहले तीन मिसरों की ग़ज़ल की पंक्ति के पहले मिसरे से तुक मिलती है, पंक्ति जो छन्द में चौथी हो जाती है; और पाँचवें मिसरे की तुक वही होती है, यहाँ तक कि मुख़म्मस के अंत तक, जो पहले छन्द की होती है, यह तुक वही होती है जो ग़ज़ल की।

'मुस्तज़ाद', अर्थात् 'और जोड़ना'। ऐसा उस ग़ज़ल को कहते हैं जिसकी हर एक पंक्ति में एक या अनेक शब्द जोड़े जाते हैं जिसके बिना या सहित कविता पढ़ी जा सकती है।[१] इस रचना से एतराज़ (incidence) या हशो (filling up) नामक अलंकारों का विकास हुआ है, और जो, रुचिपूर्ण व्यक्तियों की प्रशंसा प्राप्त करने के लिए वह होना चाहिए जिसे 'हशो मलीह' (beautiful filling-up) कहते हैं।[२]

'मौलूद'। यह शब्द हमारे 'noëls' (क्रिस्मस-संबंधी) नामक गीतों की तरह है। वास्तव में यह मुहम्मद के जन्म के सम्मान में भजन है।

'रिसाला'। इस शब्द का ठीक-ठीक अर्थ है 'पत्र', जिसका प्रयोग पद्य या गद्य में छोटी-सी उपदेशात्मक पुस्तक के लिए होता है, और जिसे


  1. श्री द सैसी (M. de Sacy) ने उदाहरण के लिए फ़ारसी की एक सुन्दर रुबाई दी है ('ज़ूर्ना दै सावाँ', Journal des Savant, जनवरी, १८२७)। वली की रचनाओं में अनेक मिलते है, मेरे संस्करण के पृ॰ ११३ और ११४।
  2. 'Rhet. des nat. mus.' (मुसलमान जातियों का काव्य-शास्त्र) पर मेरा तीसरा लेख देखिए, पृ॰ १३०।