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प्रस्तावना

लेखिकाओं से संबंधित होने के कारण वह जितना रोचक है उनता ही अद्‌भुत है। मेरा मतलब मेरठ के रईस, हक़ीम फ़सीह उद्दीन रंज कृत 'बहारिस्तान-इ नाज़'––नाज़ का बाग––से है, जिन्होंने उसकी एक प्रति मेरे पास भेजने की कृपा की। न मैं लखनऊ के मुंशी फ़िदा अली ऐश द्वारा दिए गए रचयिताओं संबंधी संक्षिप्त सूचनाओं सहित, 'वासोख़्त' (wâcokht) नामक तिहत्तर कविताओं के दो जिल्दों में एक बड़े संग्रह का उल्लेख कर सका हूँ––संग्रह जो वास्तव में एक विशेष तज़्‌किरा भी है, और जिसके अस्तित्व का ज्ञान मुझे केवल २७ जुलाई, १८६७ के 'अवध अख़बार' द्वारा प्राप्त हुआ था।

हाल ही में एक मुसलमान विद्वान्[१] ने एक हिन्दुस्तानी पत्रिका[२] में उर्दू का निर्माण इस ढंग से प्रस्तुत किया है जो मेरी भूमिका में अन्य मूल उद्‌गमों के आधार पर दिए गए से कुछ भिन्न है। उनका कहना है : "ईसवी सन् के ११९१ तक हिन्दुस्तान में राजाओं का शासन था।; उस समय भाषा या भाखा (हिन्दुई या हिन्दी) बोली जाती थी, और संस्कृत लिखित और विद्वानों की भाषा थी। ११९३ में शिहाबुद्दीन गोरी ने भारत के समस्त राजाओं के महाराजा पृथीराज को बन्दी बनाया, और इस प्रकार हिन्दुओं का शासन समाप्त हो गया। १२०६ में, शिहाबुद्दीन का ग़ुलाम, कुतुबुद्दीन ऐबक मुसलमान बादशाहों में सबसे पहले था जो दिल्ली के सिंहासन पर बैठा। तब, क्योंकि इस बादशाह की सेना और दिल्ली के पुराने निवासी एक ही जगह रहते थे, निरंतर इकट्ठे होते थे और हर घड़ी संपर्क में आते थे, अनेक फ़ारसी, तुर्की तथा अन्य शब्दों के मिश्रण से भाषा का रूप बदलने लगा। १३२५ में, तुग़लक शाह के समय में, दिल्ली के अमीर ख़ुसरो ने इस नवोत्पन्न भाषा में अब तक प्रयुक्त होने वाले एक छोटे-से व्याकरण का निर्माण किया।[३] उन्होंने फिर 'पहेलियाँ',


  1. मुंशी जमालुद्दीन
  2. २४ नवम्बर, १८६८ का 'अवध अख़बार', पृ॰ ७२२
  3. 'ख़ालिक बारी'