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हिंदुई साहित्य का इतिहास

'मुकरियाँ', 'अनमल' (Anmal)[१] और 'दोहरे' लिखे जो अब तक बहुत प्रसिद्ध हैं।

"तो यह नई भाषा अन्य अनेक भाषाओं की मिश्रण थी, क्योंकि उर्दू (पड़ाव), सैनिक शिविर, में सब तरह के लोग इकट्ठे होते थे, और उसी से उसने अपना नाम ग्रहण किया। किन्तु १७१८ के वर्ष तक उसका कोई मूल्य नहीं था, क्योंकि उस समय तक साहित्यिक रचनाओं के लिए उपयुक्त समझी जाने की अपेक्षा वह बाज़ार में समझी जाने वाली अधिक मानी जाती थी, लोग फ़ारसी, जो दरबारी भाषा थी, में उसी प्रकार लिखते रहे, और भाषा में लोकप्रिय कविताओं की रचना तक सीमित रहे। किन्तु, १७१९ में, दिल्ली के सिंहासन पर बैठ जाने पर मुहम्मद शाह ने उर्दू को प्रचलित करने की उत्कट इच्छा का अनुभव किया, और स्वयं उसे पूर्ण करने और उसकी कुछ अभिव्यंजनाओं के बदलने में संलग्न हुआ। उसके शासन के द्वितीय वर्ष में दक्खिन के वली ने उर्दू में एक दीवान लिखा, और उनके एक शिष्य, हातिम, ने भी कुछ पद्य लिखे। फिर उन्होंने अपने पैंतीस शिष्य बनाए, जिनमें से कुछ प्रसिद्ध हो गए हैं। वह प्रायः कहा करते थे : 'मैंने हिन्दी का प्रयोग रोक दिया है, और उसका स्थान उर्दू को दिया है, ताकि लोगों द्वारा प्रयुक्त होने पर वह तुरंत शिष्ट लोगों को रुचिकर प्रतीत हो।' तबसे यह भाषा दिन-पर-दिन अधिक शुद्ध और परिमार्जित होती गई है, और एक बहुत बड़ी हद तक पूर्ण हो गई है।"

अंत में एक और विद्वान् मुसलमान का अपनी ओर से हिन्दी और उर्दू के संबंध में कथन इस प्रकार है :[२]

"हिन्दी (मध्य युग के) भारतवर्ष की पुरानी भाषा है और अनेक लेखकों द्वारा उसका साहित्य समृद्ध हुआ है...


  1. 'विविध'। अन्य शब्दों की व्याख्या भूमिका में दी गई है।
  2. सैयद अब्दुल्ला की 'सिंहासन बत्तीसी' के संस्करण की भूमिका