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भूमिका

देवनागरी, या अधिकतर नागरी[१]में लिखित हिन्दू बोली को 'हिन्दी' शब्द से, और फ़ारसी अक्षरों में लिखित, मुसलमानी बोली को, ‘उर्दू’ नाम से अलग-अलग करना अधिक पसंद करते हैं। अब तो स्वयं यूरोपियने बड़ी खुशी से इन दो नामों का प्रयोग करते हैं।

जब तक मुसलमानी राज्य जारी रहा, फ़ारसी अक्षरों में लिखित उर्दू समस्त भारत में स्वीकार कर ली गई थी, यद्यपि, न केवल अंतर्राष्ट्रीय संबंधों के लिए, वरन् अदालतों और सरकारी दफ्तरों के लिए भी, राज्य की सरकारी भाषा फ़ारसी थी। बहुत दिनों तक अँगरेज़ी सरकार ने इसी नीति का पालन किया, किन्तु भारत में इस विदेशी भाषा के प्रयोग के फलस्वरूप उत्पन्न कठिनाइयों का अनुभव कर, उन्होंने १८३१ में, लोगों के हित के लिए, विभिन्न प्रान्तों की सामान्य भाषाओं को स्थान दिया, और स्वभावतः उर्दू उत्तर तथा उत्तर-पश्चिम प्रान्तों के लिए अपना ली गई। यह सुन्दर कार्य सबको पसन्द आया, और अगले तीस वर्षों में इस व्यवस्था को पूर्ण सफलता मिली है तथा कोई शिकायत सुनने में नहीं आई; किन्तु इन पिछले वर्षों में भारत में प्राचीन जातियों से संबंधित वही आंदोलन उठ खड़ा हुआ है जिसमें यरोप को आन्दोलित कर रखा है, अब मुसलमानों के अधीन न होने के कारण हिन्दुओं में एक प्रतिक्रिया उत्पन्न हो गई है, अपने हाथ में शक्ति न ले सकने के बाद, वे कम-से-कम मुसलमानों की दासता के समय की अरुचिकर बातें दूर कर देना और स्वय उर्दू को ही अवरुद्ध कर देना चाहते हैं, अथवा केवल उचित रूप में रखते हुए फ़ारसी अक्षरों को जिसमें वह लिखी जाती है, जिन्हें वे मुसमलनान की छप समझते हैं। अपनी इस प्रतिक्रियावादी अजीब बात के पक्ष में वे जो तर्क प्रस्तुत करते

  1. या 'कैथी नागरी—कायथों (मुशियों) की लिखावट——अर्थात् घसीट देवनागरी, जो पदने में 'शिकस्ता' से भी अधिक कठिन है। 'शिकस्ता' भारत मैं साधारण प्रयोग में लाए जाने वाले फ़ारसी अक्षर है जिनके संबंध में उत्तर के 'नस्तलीक' और दक्षिण के 'नस्रन्नी' में भेद करना आवश्यक है।