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हिंदुई साहित्य का इतिहास

हैं वे बिल्कुल स्वीकार करने योग्य नहीं हैं। बिना इस बात की ओर ध्यान दिए हुए कि जब कि हिंदी जिसे वे राष्ट्रीयता की संकीर्ण भावना से प्रेरित हो पुनर्जीवित करना चाहते हैं, अब साहित्यिक दृष्टि से लगभग लिखी ही नहीं जाती, जो हर एक गाँव में, वस्तुत: प्रदेश के लोगों की तरह, बदल जाती है, जब कि उर्दू का सुन्दर काव्यात्मक रचनाओं द्वारा रूप स्थिर हो चुका है, वे कहते हैं कि देश की (अर्थात् गाँवों को) भाषा हिन्दी, न कि उर्दू। हिंन्दुओं को फ़ारसी अक्षरों के संबंध में आपत्ति है और वे नागरी पसन्द करते हैं; किन्तु बात बिल्कुल उल्टी है, और वह पक्षपातपूर्ण दृष्टिकोण से अस्पष्ट हो ही जानी चाहिए इसलिए मैं सुन्दर देवनागरी अक्षर नहीं कहता, किन्तु फ़ारसी अक्षरों, साथ ही शिकस्ता के मुक़ाबले में भद्दी घसीट नागरी पढ़ना अभिक कठिन है। मुसलमानों ने साहसपूर्वक यह आक्रमण सहन किया है और, मेरा विचार है, अपने विरोधियों को सफलतापूर्वक सख्त उत्तर दिया है। स्पष्टतः यह ज़ातिगत और धर्मगत विरोध है, यद्यपि दोनों में, से कोई यह बात स्वीकार करने के लिए राज़ी नहीं है। यह बहुदेववाद का एकेश्वरवाद के विरुद्ध, वेदों का बाइबिल जिसके अन्तर्गत मुसलमान आ जाते हैं, के विरुद्ध संघर्ष है। मैं नहीं जानता कि अँगरेज़ सरकार हिन्दुओं के सामने झुक जायगी, अथवा जिन मुसलमानों के शासन की वह, उत्तराधिकारिणी है उनको बोली (dialecte) को सुरक्षित रखेगी।[१]अँगरेजी, अर्थात् लेटिन (या रोमन जैसा कि उसे वास्तव में कहा जाता है) लिपि को लादते समय यदि वह यह समस्या हल करने का निश्चय नहीं करती, तो साहित्यिक दृष्टिकोण से यह अत्यन्त दुःखद बात होगी।

किन्तु इन बोलियों के, विशेषतः लिखावट द्वारा प्रकट होने वाले विरोव का, वास्तव में मेरे विषय से बहुत कम संबंध है, क्योंकि उसके

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  1. मेरे पिछले 'दिस्कुर' (भाषणों) में इस प्रश्न तथा उसके द्वारा उठे वाद-विवाद के संबंध में अनेक विचित्र बातों का स्पष्टीकरण है।