पृष्ठ:हिन्दी निरुक्त.pdf/१३

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में सोता है' का प्रमार्थक स्थिति--सुलाता है। 'ल' अन्त:स्थित है। 'मांगता है की प्रेरणा में मंगवाता है'। 'बबोत्र में विराजमान हैं। र भी बीच में कूदता है, आगे देखेंगे ही। एक बात और है इनका नाम 'अन्तःस्थ' होने के कारण। वे (य, ३, र तथा ल) व्यंजन तो हैं; पर इ, उ, ऋ में (नया संस्कृत में ल से भी) बहुत मेल रखते हैं। इ, उ, ऋ और ल का प्रतिनिधित्व दावर य, व, र तथा ल किया करते हैं और इन के स्थान को वे स्वर भी लिया करते हैं। यह चीज संस्कृत में भी है और हिन्दी में भी ! जाइ-जार, होइ-होय आदि में आगे आप देखगही । सो, व्यंजन होने पर भी स्वरों में मेल इनके अन्तःस्थ' नाम में कारण हो सकता है। श, म, प और ह ये चार अभर जम्म' कहलाते हैं। ऊपम ये वस्ततः है, बडी गरमाहट इनमें है । गरमा कर बड़े जोर ले वोलते हैं। 'ह तो सभी महाप्राणों का प्राण है । वर्गों के प्रथम तथा तृतीय अक्षर बेचारे अल्पप्राण हैं। बड़े कोल्न, धीमी आवाज ! अल्पप्राण में जोर कहाँ ? जोर की आवाज कहाँ : परन्तु जब इन अन्यप्राणों को महाप्राण हे का सहारा मिन्न जाता है, न वे विकराल रूप धारण कर लेते हैं जैसे गुरु गोविसिंह का सहारा पादर कत्र के वे निरीह किसान मजदुर 'मिह बन गये थे। साधारण चिड़ियां बाज बन गयीथीं। तभी तो गुरु ने कहा था-चिड़ियों को बाज बनाऊँ, तो गुरु गोविन्द सिंह कहाऊँ। इसी तरह ह कहता है-मैं अल्पप्राणों को भी महाप्राण बना देता है। 'ब' और 'द' में कोई जोर है ? दर ब-दर भटकते हैं।' कहाँ जोर है ? मरी हुई आवाज । परन्तु इसी द और व को जबह का सहारा मिल जाता है, तब इनमें महाप्राणता आ जाती है; ये गरजने लगते हैं-- नाथ भूधराकार नीरा आवन कुम्भकरन रन-धीरा। "भूधराकार से ऐसा लगता है, जैसे बवंडर आ रहा हो। इसकी जगह 'पर्वताकार कर दिया जाना, तो क्या यह वात रहती। इसीलिए वीर-रौद्र आदि रसों में महाप्राण वर्गों के अधिक रखने का विधान है और करुण-शृंगार आदि कोमल रसों में इनकी अधिकता दोषावह बतलायी गयी है। संयुक्त मोर्चा जोर-दार हो जाता है; कठोर हो जाता है। संयुक्त अभर कर्ण-कटु हो जाते हैं। वर्गों के द्वितीय-चतुर्थ अक्षर 'संयुक्त' ही हैं, पर वे ऐसे घुल-मिल गये हैं कि वहाँ अनेकता या