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हिन्दी-निरुक्त :१७
 


'बोलो' को साहित्यिक भापा का रूप दिया गया, तो 'सी' को उड़ा दिया गया और के अन्त में 'अ' का आगम हो गया। इसी तरह 'वां सी' के 'सी' का लोप और 'द' के अन्त में 'अ' का आगम । तब वर्ण-व्यत्यय से सुन्दर सुडौल शब्द बन गये-'यहाँ', 'वहाँ'। ऐसा जान पड़ता है कि कुरु-जनपद एक-'स्वर' शब्द को पसन्द नहीं करता है। इसलिए हिन्दी को सभी बोलियों में प्रसिद्ध शब्द 'है' को भी वह है गा', 'है गो', 'हैं गे' इन तरह 'गा' के आगम के साथ ग्रहण करता है । परन्तु साहित्यिक भाषा के रूप में गृहीत होते समय यह 'गा-'गो' का झमेला फिर उड़ जाता है और वहीं 'है' रह जाता । संस्कृत में 'दोला' शब्द झूले के अर्थ में सर्व-प्रसिद्ध है। इसके सादृश्य से उस सवारो में भी हिन्दी में इसका प्रयोग किया, जो दो आदमियों के कन्धे पर झूलती हुई चलती है। परन्तु इस विशिष्ट अर्थ में प्रयोग करने से पहले कुछ रूप-परिवर्तन भी हुआ। 'द' को 'ड' हो गया, 'डोला' । और उसोका स्त्री-लिंग 'डोली' शब्द बना । फिर, एक विशेष प्रकार का झूला चला, 'पङ्किका (खटोला) आदि को आरामदार वनाकर और सजाकर झूले का रूप दिया गया, जिसमें विलासीजन झूलने लगे और यही विशिष्ट झूला (वृन्दावन आदि में) श्रीकृष्ण-प्रति- माओं को झुलाने के लिए प्रयुक्त होने लगा। दोला' का विकसित रूप (डोला और डोली) उस अर्थ में गृहीत हो चुका था और साधारण झूले (दोला) से इसमें अत्यधिक विशेषता थी। 'दोला' या 'झला' शब्द इस अर्थ को दे नहीं सकते थे। इसलिए हिन्दी ने एक और शब्द गढ़ा। 'डोला' के आदि में 'हि' का आगम हुआ: बन गया -'हिंडोला। 'हिंडोला' शब्द से अब जो अर्थ निकला, वह साधारण 'झूला' या 'दोला' से नहीं निकलता। वृन्दावन के 'हिंडोला उत्सव' को बहुत दिन तक संस्कृत में 'दोलोत्सव' ही कहते रहे और अब भी कहते हैं। परन्तु किसी- किसी को कमी का अनुभव हुआ। ऐसा लगा कि हिंडोला' में जो बात है,वह 'दोलोत्सव' के दोला में है ही नहीं। इसलिए इस प्राकृत शब्द (हिंडोला) का पुनः संस्कृतीकरण किसी-किसी ने किया और 'हिन्दो- लम्' शब्द चलाया। इस तरह 'उलटे बाँस बरेली' को जाते कुछ अट- पटे लगते हैं: पर गये । यदि ऐसा कोई न माने और कसम खाकर कहे कि 'हिन्दोल' शब्द संस्कृत में पुराना है और उसी से हिन्दी में 'हिंडोला'