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१८:हिन्दी-निरुक्त
 


बना है, नो भी वर्णागम तो है ही । दोला' शब्द के आदि में 'हि' का आगम ; अनुस्वार का पर-सवर्ण (न) और अन्त के 'आ' को ह्रस्व नया नपुसक लिंग। तब दोल' का वना हिन्दोल' और उस से हिन्दी का हिडोला' । 'हिं' का आगम स्पष्ट है। संस्कृत में 'दोला' और 'हिन्दोल' इन दो पृथक् शब्दों की सृष्टि सम्भव नहीं है । एक ही शब्द को अनेकधा विकास अधिक युक्तिसंगत है। कारण, स्वरूप तथा अर्थ की एकता स्पष्ट है; भले ही कुछ विशेषता आती जाय । अर्थ की विशेपत्ता ही तो एक चीज है। रे' सम्वोधन में भी, आदि में,'ए'का आगम देखा जाता है व्रज- भाषा में ; पर कोमलता लाने के लिए---‘एरे पाप मेरे' । इसी तरह पूरवी बोली में 'रे' के पूर्व 'ओ' का आगम हो जाता है.---'ओरे'। यह भी कह सकते हैं कि 'ए' तथा 'रे' और 'ओ तथा 'रे' का सहप्रयोग हो, दो-दो सम्बोधन-शब्दों को एक साथ बोलना कोई अचरज की बात नहीं—जब कि 'बाग-बगीचा' और 'काला-स्याह' आदि एकार्थक शब्दों का सहप्रयोग है। हमारा 'एक' पंजाब में 'इक' होकर ह' का आगम कर लेता है-'हिक'। इसी तरह हमारा 'और' वहाँ 'ओर' के रूप में हस्व होकर महाप्राण 'ह' का आगम करके वैसी कर्कशता सम्पादित करता है-'होर'। कोमल बंगला भाषा हमारे' के 'ह.' को हटा देती है। वहाँ पंजाब की मर्दानी भापा के 'इक' तथा 'और' में 'ह' का आगम कर लेती है। मानो भापा की कोमलता-कठोरता का सम्पादन-कार्य 'ह' के ही जिम्मे आ गया हो।

. पद के अन्त में भी व्यंजन का आगम होता है। संस्कृत के 'मधु'

शब्द में 'र' का आगम होकर ही मधुर' बना है। हिन्दी का 'सुथरा' शब्द भी 'र' के अन्यागम से ही बना है, जो आगे स्पष्ट होगा। 'वत्स' से 'बच्छ' बनकर अन्त में 'र' का आगम हुआ और उस ('र') में हिन्दी की -व्यंजक (7) विभक्ति लगकर तथा बीच के 'च' का लोप होकर, 'वछरा' बना, जो मेरठी वोली ने 'बछड़ा' बनाकर ग्रहण किया। 'र' की अपेक्षा 'ई' कठोर है और कठोर पंजाबी भाषा के पड़ोस में हिन्दी की 'मेरठी बोली' है। यहाँ तो बहन' भी 'भैण' बन जाती है। 'न' को कोमलता यहाँ ' की कठोरता में बदल जाती है; जब कि वज तथा अवध आदि की बोलियों में 'कारण', 'रण', 'भूषण' आदि के