'ण' को 'न' में परिवर्तित कर के कारन', 'रन' तथा 'भूषन' (या
'भूखन') जैसे कोमल-मधुर शब्द बना लेने की प्रवृत्ति है।
संस्कृत के 'बहु' मन्त्रा-बार शब्द के अन्त में 'नु का आगम
करके हिन्दी ने 'बहुत' बना लिया। मध्य में व्यंजनागम तो बतलाना'
(बताना) आदि में प्रसिद्ध ही है।
___इस तरह व्यंजन का आगम पद के आदि में, मध्य में तथा अन्त
में हुआ करता है। परन्तु स्वर का आगम प्रायः मध्य में ही होता है।
अन्त में स्वरागम तो संस्कृत की व्यंजनान्त धातुओं में हिन्दी ने किया
ही है-पच् का पत्र (अर्थ-विकास के साथ) और 'पट का पड़
(वर्ण-विकार के साथ) । परन्तु साधारणतः संज्ञा और विशेषण आदि
में हिन्दी ने मध्य में स्वरागम स्वीकार किया है। संस्कृत का कर्म (क
रमा हिन्दी में करम'कर अम) बन जाता है और 'धर्म' बत
जाता है 'धरम । 'करम-धरम सब छूटि गे' । साहित्य में 'कर्म-धर्म'
भी चलता है; प्रसंग-विशेप में करम-धरम' भी। इसी तरह दूसरे देश
के शब्द 'शर्म' (लज्जार्थक) हिन्दी में शरम' और 'नर्म' 'नरम बन
जाते हैं। संस्कृत के विलासक्रीडार्धक 'नम' तथा कल्याणार्थक 'शर्म'
शब्द का हिन्दी में वैसा विकास या रूप-परिवर्तन नहीं हुआ । कारण,
ये शब्द जन-प्रचलित नहीं और दूसरा कारण यह कि लज्जार्थक शरम'
और क्लिन्नार्थक या कोमलार्थक नरम' शब्द जब सामने हैं, तो इसी
रूप के 'शरम' और 'नरम' शब्द अर्थान्तर में चलाकर हिन्दी ने भ्रम
या सन्देह पैदा करना उचित नहीं समझा । इसलिए संस्कृत के 'शर्म'
तथा 'नर्म' शब्द ज्यों के त्यों रहे।
जब किसी शब्द में र के आगे 'य्' व्यंजन (संयुक्त होकर) एक
स्वर में रहता है; तब विशेष परिवर्तन होता है। र के आगे स्वर का
आगम हो जाता है और य् का 'जहा जाता है। य और ज का एक ही
(ताल स्थान है. अतः ये एक दूसरे का प्रतिनिधित्व करते रहते हैं:
प्रायः 'य्' के स्थान पर 'ज्' हो जाया करता है। यह बात संस्कृत में
भी है: और, हिन्दो में तो बहुत ज्यादा । इसीलिए "धैर्य' का 'धीरज'
और 'कार्य' का 'कारज' हो जाता है । 'कर्म का 'काम' भी हो होता
है; यद्यपि 'करम' सामने है। 'करम' तथा 'काम' में किंचित् अर्थ-भेद
स्पष्ट है । 'कर्म' का 'काम' जैसा प्रसिद्ध है, वैसा 'धर्म' का 'धाम
नहीं। सूर्य-ग्रहण के समय भंगी लोग 'धरम करो, भई धरम करो'
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हिन्दी-निरुक्त:१९