ही चिल्लाते हैं: 'धाम करो, भई धाम करो' नहीं। क्यों? इसलिए कि
'धाम' शब्द हिन्दी में एक दूसरे अर्थ में प्रसिद्ध है। हाँ, 'कर्म' से
निष्पन्न 'काम' के साथ-साथ 'धर्म' का 'धाम भी आ जाता है—'कुछ
काम-धाम तो है नहीं।' स्पप्ट ही यहाँ 'धाम' शब्द 'धर्म' का विकसित
रूप है। कर्तव्य कर्म को ही 'धर्म' कहते हैं, जिसका यह 'धाम' है।
'कान के साथ मतलब निकल गया; परन्तु केवल 'वाम' शब्द का
प्रयोग इस अर्थ में नहीं होता :जिससे भ्रम-सन्देह न रहे। संस्कृत का
वह कामनार्थक 'काम' शब्द साधारण जनता में प्रचलित न होगा;
इसीलिए 'कर्म' का 'काम' बन गया। 'वाम' तो 'स्वर्ग-धाम', 'चारो
धाम आदि में प्रसिद्ध रहा ही है। इसीलिए 'धर्म' का 'धाम' अकेले
प्रयुक्त नहीं होता।
है-वर्णागम समझने में मूल
दगिम समझने में बड़े-बड़े लोग भी भूल-भुलैयों में पड़ जाते
हैं । अनेक भाषा-विज्ञानी आचार्य इस भ्रम में पड़ गये हैं कि 'है' क्रिया
में 'अ' का आगम होकर 'अहै' बना है ! यह 'उल्टी गंगा' है। वस्तुतः
'अहै' मूल रूप है, जिसके 'आ' का लोप होकर 'है' की निष्पत्ति हुई
है ! यह बात आगे 'लोप-प्रकरण' में स्पप्टतर कर दी जायगी।
डा० बावराम सक्सेना जैसे हिन्दी के विद्वानों ने भी वर्णागम
समझने में कहीं-कहीं बड़ी गलती की है और अपनी वह (गलत समझी
हुई) वात 'भाषा-विज्ञान' में उसी तरह निरूपति करके दूसरों को
समझाने की चेष्टा की है ! 'बाजारू हिन्दो' का एक भ्रष्ट प्रयोग है,
विशेषणों में भी तहान अर्थ का 'वाला' शब्द जोड़ना; जैसे- 'वड़ा-
वाला' 'बढ़ियावाली' 'छोटावाला' इत्यादि। अंग्रेजी राज्य में भारत
के अंग्रेज अफसर हिन्दी की अवज्ञा जानवझकर करते थे और बहुत से
इसकी उपेक्षा करके कुछ समझते ही न थे! वे हो (अंग्रेजी अफसर)
जाने-अनजाने किसी भी तरह वैसे ('वड़ावाला' आदि) गलत-सलत
प्रयोग करने लगे; गाड़ीवाला' 'टाँगेवाला' आदि के वजन पर। उनकी
देखा-देखी (उनके जमरे) 'वावू' लोग भी साहवी छाँटते हुए उसी तरह
वोलने लगे, जिनसे वैरों-चपरासियों ने और उनसे फिर बाजार के
दुकानदारों ने बोलने की वैसी 'शिक्षा' ग्रहण की! इस तरह अज्ञान-
विजम्भित 'वाला' का जोडना भाषा का स्वाभाविक विकास नहीं कहा
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२०:हिन्दी-निरुक्त