अभाव है-'वात्रुवों में स्पष्ट श्रुत नहीं है और इसीलिए लोप----
'
वाओं में' । इसके विररीत 'नदियों में', 'कवियों में इत्यादि रूपों
में इछ का 'म्' सष्ट श्रुत है। इसीलिए सामने दिखायी दे रहा है।
जिसको कोई आवाज नहीं, वह जी नहीं सकता. किंवा जीता हुआ भी
कुछ नहीं।
प्रश्न हो सकता है कि उ-को 'ओं विकरण परे होने पर) उद्
होता है. इसमें फिर प्रमाण क्या ? जब कि 'ब' लुप्त ही हो जाता है,
तो फिर उन्होने को वान सी:
उत्तर में निवेदन है कि उत्र् का होना प्रकृति के रूप से स्पष्ट
वावुओं को
बाबुओं ने
बहुओं में
बहुओं में
यहाँ बाबू' नया वह को बन्लान्त किसने कर दिया ? 'बू' का
'बु' और 'हूँ का ह' को हो गया ? आप कहेंगे कि दीर्घ को ह्रस्व हो
गया । मान लेते हैं। परन्तु एक नया नियम बनाना क्या ठीक है ?
सीधी बात है कि 'इ-ई' को 'इय् तथा 'उ-' को 'उ होता है,
विकरण (ओं) परे होने पर । परन्तु 'ओं के साथ श्रुत नहीं
होता; इसलिए लुप्त हो जाता है। ऐसे स्थलों में अन्यत्र भी 'द का
लोप देख सकते हैं: आगे स्पष्ट होगा।
तव भी प्रश्न रह ही जाता है कि 'व' 'ओ' के साथ श्रत क्यों
नहीं होता ? उत्तर है कि और 'उ-ॐ का स्थान एक है-
का स्थान दन्त-ओष्ठ' और उ-ऊ का स्थान ओष्ठा 'ओं' में 'अ' भी
है और 'उ' भी: अर्थात् ओष्ठस्थान “व्' और 'ओ' का समान है। व्यंजन
पराश्रित होता है और स्वर स्वतन्त्र । एकस्थानीय सशक्त में अशक्त
लुप्त हो जाता है। यही कारण है कि उ, ऊ, और ओ में 'ब्' की
स्पष्ट श्रुति हो ही नहीं सकती। इसीलिए 'ब' लुप्त हो जाता है।
इस बात को न समझ सकने के ही कारण व्याकरण के नियम बनाने
में वह उतना बड़ा झमेला हुआ है।
हिन्दी बहुत सरल भाषा है । उ-ॐ के उव् होने का फिर शायद
प्रसंग ही नहीं आया । बहुवचन में जहाँ ने-को आदि विभक्तिों
नहीं होती, स्त्रीलिंग शब्दों के आगे 'आँ' (विभक्ति आती है।
यहाँ भी इ-ई को 'इय्' होता है-वृद्धियाँ, नदियाँ । तत्सम आकारान्न
स्त्रीलिंग प्रकृति अविकृल रहती है; पर विभक्ति 'आँ' को 'एँ हो
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हिन्दी-निरुक्त:२३