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हिन्दी-निरुक्त : २७
 

हैं ।-प्रथा जारी है; पर उसे 'कानून' का रूप नहीं मिला है। व्यंजन की तरह स्वर-विपर्यय भी हुआ करता है । 'जंघा' से 'जाँघ' बन गया। 'जा' पर अनुस्वार (') भी अनुनासिक (') की ही आवाज देता है। दीर्घ स्वर पर अनुस्वार अपनी ध्रुति देता नहीं है । स्वर- विपर्यय स्पष्ट है-'आ' (1) अन्त से उठकर आदि में चला आया, 'ज' के साथ बैठ गया, और 'ज' का छोटा 'अ' भाग कर अन्त में (घ के साथ) जा बैठा-बन गया 'जाँव ।' इसी तरह साँझ, खाठ, लाज (सन्ध्या, खट्वा, लज्जा) आदि में स्वर-विपर्यय है। आप देखेंगे, संस्कृत की आकारान्त स्त्रीलिङ्ग संज्ञाएँ यहाँ अकारान्त प्रायः हो गयी हैं-तदभव संज्ञाएँ। तत्सम 'लता' आदि का लात आदि न बनेगा। आप कहेंगे कि हिन्दी में एक 'लात' शब्द पहले से है; इस लिए ऐसा न हुआ होगा। पर ऐसा नहीं है । तत्सम वैसी सभी संज्ञाएँ प्रायः अपरि- वर्तित ही रहती ही हैं। तभी तो दया, क्षमा, आदि शब्द ज्यों के त्यों हैं । 'प्रायः' इस लिए कि कहीं-कहीं परिवर्तन देखा भी जाता है । 'माता' तत्सम का 'मात' होता भी है-'मात-पिता' : केवल 'मात' नहीं आता; अवधी आदि में 'मातु' जरूर आता है। यह अवश्य पुछा जा सकता है कि अपनी असली अमलदारी में --- तद्भव स्त्रीलिङ्ग संज्ञाओं में-~अन्त्य 'आ' का 'अ' से क्यों व्यत्यय हो जाता है ? 'आ' तो स्त्रीलिङ्ग की पहचान है न ? उस पहचान को उड़ा कर हिन्दी ने क्या भ्रम और सन्देह की गुंजाइश नहीं दी? यह क्या बात है ? उत्तर इसका है। हिन्दी ने दीर्घ 'आ(1) को पुं-व्यंजक विभक्ति के रूप में स्वीकार किया है । प्रत्येक तद्भव संज्ञा, विशेषण तथा क्रिया के कृदन्त रूप में प्रायः इस पुं-व्यंजक विभक्ति का प्रयोग होता है- बछड़ा, मीठा, गया आदि। इसी लिए स्त्रीलिङ्ग वैसे शब्दों के अन्त्य 'आ' को 'अ' में बदल दिया जाता है--जिस से भ्रम न रहे। हिन्दी को यह पुं-व्यंजक विभक्ति कहाँ से आयी, किस तरह आयी; इस की कथा 'वर्ण-विकार' के प्रकरण में सुनायो जायगी। जब हिन्दी ने 'आ' (1) को पु- व्यञ्जक विभक्ति के रूप में ग्रहण किया, तव स्त्री- व्यजक विभक्ति यहाँ 'ई' (1) स्वीकृत हुई, संस्कृत के ही आधार पर-बछड़ी, मोठी, गयी आदि । अर्थात् तद्भव आकारांत संज्ञाओं, विशेषणों तथा कृदन्त क्रियाओं को स्त्री-लिङ्ग बनाने के लिए 'ई' (1) प्रत्यय काम में