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२८ : हिन्दी-निरुक्त
 

लाया जाता है। परन्तु संस्कृत आकारान्त स्त्रीलिङ्ग संज्ञाओं को जब स्वर-व्यत्यय कर के 'जाँध' आदि बना लिया जाता है, तब उन में यह 'ई' (1) प्रत्यय नहीं लगाया जाता। ये सब व्याकरण की वाते हैं; प्रसङ्ग आने पर चर्चा कर दी गयी। इसी तरह गङ्गा' का गङ्ग, होता है; पर 'गांग' या गाँग नहीं । कारण, इस तरह का उच्चारण कुछ बेढंगा सा होता! सो, 'जब लगि गंग जमुन जल-धारा' रहा। 'यमुना' का 'जमुन' हो गया । 'य' प्राय: 'ज' होता ही रहता है। 'जामुन' बोलने में अटपटा तो नहीं; पर एक फल को भी 'जामुन' कहते हैं, जो 'जम्बू' से निष्पन्न है। इस 'जामुन' की विद्यमानता में हिन्दी ने 'यमुना' को 'जमुन' के रूप में ग्रहण किया, 'जामुन' दना कर गड़बड़ी नहीं पैदा की । स्वर-विपर्याय नहीं किया। पश्चिम' से 'पच्छिम' भी वर्ण-विपर्यय कर के बना है। 'श' तथा 'स' सदा 'छ' रूप में बदलते रहते हैं; यह बात वर्ण-विकार प्रकरण में स्पष्ट की जायगी । सो प छ् च् इ म' ऐसी स्थिति हुई। फिर 'छ' उधर और 'त्र' इधर । यो वर्ण-व्यत्यय से पच्छिम'। १३-'ह' की विशेषता __वर्ण-व्यत्यय में 'ह' की विशेषता नजर आती है । यह महाप्राण वर्ण उसी तरह सम्पूर्ण गो-ब्रज खौंदता फिरता है, जैसे कोई दुर्दम साँड़ बेरोक-टोक इधर-उधर घूमता हो! सम्भव है, यह इधर से उधर खदेड़ दिया जाता हो ! कारण, यह पीछे ही भागता नजर आता है। पद या 'शब्द' के अगले भाग से उठ कर प्राय: यह पीछे या अन्तिम सिरे की ओर दौड़ता है। हिन्दी स्वभावतः मधुरप्रकृति है और 'ह' एक कर्कश महाप्राण वर्ण है, जो दूसरे (साधारण) वर्णों के साथ बैठ कर उन्हें भी महा-कर्कश बना देता है। इसी लिए हिन्दी इसे प्रमुख रूप से नहीं रहने देती, आगे नहीं टिकने देती। इस से कर्कशता कम हो जाती है। ___ 'हद' एक संस्कृत शब्द है । एक तो प्रारम्भ में 'ह, और फिर 'र' से संयोग । हिन्दी ने 'र' का लोप कर के पहले तो इस की कर्कशता उड़ा दी। परन्तु 'हद' तो यहाँ सीमार्थक एक और शब्द भी है, फारसी से आया हुआ है इसी लिए 'हद' के 'ह' तथा 'द' का स्थान बदल दिया गया-'दह' वन गया। 'मार्यो टोल, गेंद गई दह में ।' 'कालिय-ह्रद' बन गया---'काली-दही