पृष्ठ:हिन्दी निरुक्त.pdf/२७

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हिन्दी-निरुक्त : २९
 

१४-'हता' से 'या' वर्ण-व्यत्यय से 'हता' का 'था' और 'हती' का 'थी' बना है। 'ह.' को पीछे फेंक दिया गया और 'त' आगे किया गया । भारी नीचे गिरा और गौरव से दूर रहने वाला 'तू' सिर-माथे लिया गया। हो गया- 'तहा' । तब फिर 'त' के 'अ' का लोप-'त हा' । 'त्' ह के साथ मिलने पर 'थ' हो ही जाता है। 'त' के स्वर-लोप और 'त्-ह' मिल कर 'थ' बनने के और भी उदाहरण हैं.---'तिहारो-थारो' । 'ति' के स्वर 'इ' (f) का लोप और 'त् हा'-'था'--थारो। वर्ण-लोप की वात आगे स्पष्ट की जायेंगी। यहाँ इतना समझना चाहिए कि हता' वर्ण- विपर्यय से 'था' बन गया है। 'हाँ जी' आदि का 'जी हाँ' आदि होना तो स्पष्ट ही है ! दोनों रूप चलते हैं। परन्नु सर्वत्र दोनों रूप चलते रहें; सो वात नहीं है। 'सिंह' के साथ हिंस' और 'नख' के साथ 'खन' (उसी अर्थ में) नहीं चलते हैं। ध्यान रखना चाहिए कि 'खन' में भी 'ह' अलक्षित रूप से बैठा हुआ है। उसी के साथ 'क' वैठा है, जो उसी के साथ ही स्थानान्तरित किया गया ! पहियाँ' से 'यहाँ'। वर्ण-व्यत्यय और 'इ' को 'अय् जा बैठा 'अ' के साथ और 'ह'आ गया 'आँ' के सहारे यहाँ । 'ह्यांसी' के 'सी' का लोप कर के, वर्ण-व्यत्यय कर के और य के अन्त में 'अ' का आगम कर के भी 'यहाँ सम्भव है; पर इस में लोप-लाप की झंझटें अधिक हैं। इसलिए, "हियाँ' से ही 'यहाँ जान पड़ता है। इसी तरह 'हुवाँ' से 'वहाँ' है। 'हुवाँ' तो 'हुआँ-हुमाँ' सा बोलने में भद्दा लगता है। 'वहाँ अच्छा बन गया। जिन वर्णों के साथ 'ह.' जमा बैठा रहता है, उन (वर्गीय महाप्राण वर्णों) को भी प्राय: पीछे धकेल दिया जाता है। नख' ही नहीं; हिन्दी में ऐसे शतशः-सहस्रशः वर्ण-व्यत्यय के उदाहरण हैं। संस्कृत का 'भगिनी' शब्द यहाँ 'वहिनी' बन गया है । 'भ' का 'ह' निकल कर बीच में पहुंचा और अल्पप्राण 'ग्' को धक्का देकर एकदम उड़ा दिया । आप (ह.) मजे से 'इ' (1) का सहारा लेकर जम गया। जब कि 'ह.' ने साथ छोड़ दिया, तो पाच अक्षर की महाप्राण ना तुरन्त अल्पप्राणता में बदल गयी-"म् का 'ब' रह गया । किसी भी बड़े आदमी के सहारे जो छोटे को बड़प्पन मिलेगा, वह उसके हटते ही