पृष्ठ:हिन्दी निरुक्त.pdf/२९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
हिन्दी-निरुक्त:३१
 

के अकारान्त पुल्लिग (बालक) आदि शब्दों में प्रयुक्त होने वाली अनेक विभक्तियां प्राकृत, अरन तथा आधुनिक हिन्दी आदि) लोक-भाषाओं ने स्वीकृत की हैं। हिन्दी में अधिकांग क्रियाएं कृदन्न हैं और कृदन्त कर्मवाच्य नया भाववाच्य संस्कृत क्रियाओं के कती कारक तृतीचान्त रहते हैं, जहाँ बालक आदि के बालकेन' आदि रूप होते हैं। हिन्दी ने अपनी सब कृदन्त (कर्मवाच्य तथा भाववाच्य) क्रियाओं के लिए 'बालकेन' का 'एननिकाल कर और अपना रंग देकर स्वीकार किया। संस्कृत के इस रूप में किंचित वर्ण-व्यत्यय कर दिया-'ए' उधर और 'न' इधर-'न ए न के स्वर (अ) का लोप---' एन मिला ए' में-'ने'। हिन्दी ने सभी तरह की संज्ञाओं और सर्वनामों के लिए, वैसी क्रियाओं में. 'ने' को का कारक की विभक्ति स्वीकार किया और व्यापकता बढ़ा कर बड़ी सरलता कर दी। दूसरे, सन्दिरचना को भी जगह न दी। संस्कृत में कर्ता कारक में ही नहीं, करण कारक में तथा हेतु आदि में भी 'एन' है-रामः मुखेन भुंक्ते', 'जगत् अज्ञानेन सीदति'-राम मुँह से खाता है, जगत् अज्ञान से दुख पाता है। यों करण तथा हेतु आदि में 'एन' स्पष्ट है। हिन्दी ने यह झमेला हटा दिया। यहाँ 'ने' विभक्ति केवल कर्ता कारक में लगती है, और किसी भी दूसरे कारक में नहीं; कोई भी दुसरा अर्थ प्रकट करने के लिए नहीं ! कितनी व्यापकता और फिर कितनी स्पष्टता! संस्कृत से चीज लेकर उसे अपना रंग दिया, 'एन' का 'ने' बनाया। फिर, उसे सब तरह की संज्ञाओं और सर्वनामों में प्रयोग किया; पर उस तरह के कर्ता कारक में ही। एकत्र विषय-विस्तार कर के सुगमता पैदा की और अपरत्र विषय-संकोच कर के (करण आदि में 'ने' का प्रयोग स्वीकार न कर के) सुस्पष्टता सम्पादित की, सन्दिग्धता की जड़ काट दी ! यह सब वैज्ञानिक पद्धति से स्वतः हुआ, किसी ने किया नहीं। इसी लिए तो कहते हैं कि हिन्दो पूर्ण वैज्ञानिक भाषा है, विज्ञान-सिद्ध भाषा है।। इस तरह, अति संक्षेप में, परन्तु स्पष्ट रीति में, वर्ण-विपर्यय के विषय में कुछ चर्चा की गयो। पाठक यदि चाहेंगे, तो इसी आधार पर आगे बढ़ कर अपनी भाषा का सर्वे कर सकेंगे और विभिन्न शब्दों की बनावट देख कर उनकी नाक, गड्ढो और आँखें देख कर, पता लगा सकेंगे कि यह किस पुरातन शब्द-जाति की नसल से है और इस में अब तक क्या-कुछ परिवर्तन हुए हैं।