पृष्ठ:हिन्दी निरुक्त.pdf/३०

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चौथा अध्याय

१६-वर्ण-विकार एक वर्ण को दूसरे वर्ण में परिवर्तित हो जाने को 'वर्ण-विकार कहते हैं । एक वर्ण का स्थान दूसरा ले लेता है; यह मतलव । भाषा के विकास में यह वर्ण-विकार बहुत महत्वपूर्ण अंश है । वर्गों का रूपान्तर- ग्रहण किसी के निर्देश से नहीं होता है; जनता में वह स्वतः होता रहता है। परन्तु यह एक बड़े मजे की बात है कि वह अनियन्त्रित परिवर्तन बड़े ही वैज्ञानिक ढंग से होता है; जैसे किसी के नियन्त्रण में सब हो रहा हो। जब किसी वर्ण के स्थान को दूसरा वर्ण अधिकृत करता है, तो कोई कारण होता है। ऐसा नहीं हैं कि चाहे जिस वर्ण को चाहे जो वर्ण हो जाय ! दोनों में कोई सम्बन्ध होता है, भले ही वह आप को न मालूम हो। यह सम्बन्ध या तो स्थान-साम्य है, या प्रयत्न-साम्य, या ऐसा ही कुछ और । स्थान-साम्य से, आप देखें, 'क' को 'ग' होता रहता है । संस्कृत में तो वर्गीय प्रथम अक्षरों को (उसी वर्ग के) तृतीय अक्षर से बदलते आप प्रति क्षण देख सकते हैं। हिन्दो में भी साग, काग, प्रगट, लोग, पलँग आदि शतशः उदाहरण सामने हैं । कितने ही ऐसे विकास हैं, जहाँ साधारणतः कुछ मालूम नहीं देता; पर ध्यान से देखने पर सब स्पष्ट हो जाता है। हिन्दी के 'ग्यारह' शब्द को ले लोजिए। कहाँ कुछ साफ है ? परन्तु यह 'ग' आकाश से नहीं टपक पड़ा है और न 'र' ही अकुलीन है । आप जानते हैं, 'प्रक्रिया' में- समास-पद्धति आदि में----'एक' को 'इक' हो जाता है--'इकतारा', 'इकलौता', 'इकट्ठा आदि। 'एक दस' समस्त होने पर 'इक दस'। 'दस' के 'स' को 'ह' हो गया, जो वहुत प्रसिद्ध चीज है। साथ ही 'द' को 'र' हो गया। 'द' तथा 'र' का वैसा कोई सम्बन्ध नहीं जान पड़ता;