पृष्ठ:हिन्दी निरुक्त.pdf/३१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
हिन्दी-निरुक्त  : ३३
 

पर दोनों का 'प्रयत्न' अल्पप्राण है। तो, दोनों अल्पप्राणी सम हुए और इस समता के कारण ही एक दूसरे के स्थान पर कभी-कभी देखे जाने हैं: जैसे कि इसी र ह' में। तो, अब 'इक रह हो गया। 'क' को 'ग' और स्वर दीर्घ हो गया--'इगारह'। फिर, कहीं किसी तरह वीच में य' का आगम हो गया, बीच में रहने वाला (अन्त स्थ) तो यह है ही। बन गया-'इग्यारह', जो कि अब तक कहीं-कहीं बोला जाता है। फिर आगे चल कर 'इ' का लोप हो गया और बन गया- ग्यारह' ! इस तरह एक मिनट भी समय न लगा और 'एक-दस से ग्यारह वन गया । परन्तु, वस्तुतः इस के इस रूप-परिवर्तन में सदियों का समय लगा होगा! 'शाक' में 'शा' का 'सा हुआ और साथ ही क को 'ग' हुआ- शाक-साग । 'नासिका' में मध्य (सि) का लोप और अन्त्य स्वर ह्रस्व- नाक । पर यहाँ 'क' को 'ग' नहीं हुआ। कयों? इस लिए कि हिन्दी में एक 'नाग' शब्द पहले से है; साँप का पर्याय । इसी तरह 'पाक' का 'पाग नहीं हुआ; क्योंकि 'पाग' तो हिन्दी में पहले से ही विद्यमान है-शिरोवेष्टन । इस तरह, जहाँ तक सम्भव हुआ है, हिन्दी ने 'भ्रम और सन्देह को अवसर नहीं दिया है। 'च' को 'ज' के रूप में वैसा नहीं, जैसा 'क' के रूप में बदलते हम देख सकते हैं। व्रज में 'च्यों बोलते हैं और मेरठी परिसर में, उस अर्थ में 'किक्कर' बोलते हैं। दोनों के सम्मिलन में 'च्यों' के 'च' की जगह 'क' आ गया-'किक्कर' की छाया पड़ गयी ! 'च्यों' का हो गया 'क्यों'। बहत से लोग क्यों' के साथ 'कर' भी लगा देते हैं और क्योंकर' वोलते हैं। यह 'क्योंकर' 'च्यों तथा "किक्कर के मेल की कहानी कहता है, जिसमें कुछ लेने और कुछ छोड़ने की बात है । 'च' और 'क' का प्रयत्न एक है और दोनों वर्गीय प्रथम हैं। हाँ, 'ट' को अपने वर्गीय (तृतीय) अक्षर के रूप में ददलते हम देख सकते हैं। संस्कृत 'वट' हिन्दी में 'बड़' हो गया। 'ड' को ही वोलते हैं और 'ड' या 'ड' का 'र' से बड़ा मेल है। प्रयत्न तो एक है ही, उच्चारण में भी बहुत समता है। इसी लिए संस्कृत में 'ड', 'ल' तथा 'र' को एकरूपता यमक आदि अलङ्कारों में स्वीकार की गयी है और 'अलबत्ता जड़ता न हो' शब्दालङ्कार माना है। हिन्दी में लड़का' 'लरिका' आदि सहस्रशः प्रयोग हैं ही । सो, 'बड़' को 'बरगद' भी कहते