पृष्ठ:हिन्दी निरुक्त.pdf/३६

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३८ : हिन्दी-निरुक्त
 

। भले ही अल्पप्राण हो, साथी के न रहने से महाप्राण 'ह' भी कुछ क्षीण हो जाता है। घ, ढ, ध, भ में कैसी आवाज है ? जैसे गोले गड़- गड़ा रहे हों। हमें वह वात कहाँ है ? हाँ, उन चतुर्थाक्षरों से है.' निकाल लो, तो बेचारे ग, ड, द, व के रूप में रह जायेंगे । जैसे चेयर- मनी को कुो छिन गयी हो ! खैर, यह सब लोप-प्रकरण में समझाया जायगा। यहाँ इतना समझना चाहिए कि हिन्दी में वर्गीय द्वितीय तथा चतुर्थ अक्षरों में वर्ण-विकार प्रायः नहीं देखा जाता है । 'प्रायः' इस लिए कि स्तान, पढ़, उठ आदि प्रयोग सामने हैं, जिन में वर्ण-विकार स्पष्ट है। हमारा 'स्थान फारसी में 'स्तान' या 'स्ताँ' बन जाता है; अर्थात् 'थ्' को 'त्' हो जाता है। संस्कृत का पठ् हमारे यहाँ पढ़' वन जाता है। पूर्वत्र दोनों एक वर्ग के समस्थानीय हैं-थ् और त् । अपरत्र दोनों भिन्न स्थान वाले वर्ण हैं और 'द'; परन्तु दोनों महाप्राण हैं । ठ् को इ और अन्त में 'अ का आगम हिन्दी में कोई भी धातु व्यंजनान्त रहती ही नहीं; सब स्वरान्त ! इसी तरह 'उत्थान' से 'उडान' वना, जिस की झनक कहीं-कहीं अव तक 'उठू में मिलती है। फिर 'ट्' का लोप–'उठना'; और 'ना' प्रत्यय अलग करने पर 'उठ' धातु-'उठता है आदि। छ' के सम्बन्ध में विशेष बात यह कि हिन्दी में यह अक्षर 'स' का स्थान लेता है-षष्ठः-छठा । म् का 'स्' और फिर उसे 'छ्' । परन्तु फारसी में इस से उलटा मार्ग है, 'स' ही 'छ्' का स्थान ले लेता है। हमारी 'छाया' की ही छाया 'साया' है । उर्दूवाले भी 'साया' ही पसन्द करते हैं, छाया नहीं। ___' को हिन्दी में 'थ्' के रूप में बदलते देखा है। हमें तो ऐसा लगता है कि संस्कृत में भी कभी-कभी ध् की जगह थ् ने ली है। अवश्य ही 'मधुरा' ने 'मथुरा' का रूप धारण किया होगा । 'मधुपुरो' नाम से भी 'मधुरा' की झलक मिलती है। संस्कृत के आचार्य तो सभी शब्दों को व्युत्पन्न मानते हैं न ? तब 'मधुरा' को ही पुष्टि होती है। 'मथुरा' का तो कोई मतलब ही नहीं निकलता ! जव आर्य उधर दक्षिण में पहुंचे, तब भी अपनी चिरपरिचित नगरी को भूल नहीं गये और इसी नाम की वहाँ एक और नगरी वसायी, जो 'मदुरा हो गयी। 'थ' या 'ध' का 'द्' के रूप में परिणमन न हो गया।