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४० : हिन्दी-निरुक्त
 

जिन्हें दिल्ली के उत्तरी परिसर में जद, तद और कद के रूप में अब भी बोलते है । 'य' का 'ज' होना तो अति-प्रसिद्ध है। ये ही जद, तद और कद इधर आ कर जव, तव और कब बन गये। इनके ही वजन पर 'अन' की सृष्टि हुई है; जैसे 'मीठा' के वजन पर 'सीठा'। 'त्' को य के रूप में भी बदलते देखा है-'कत-किय'; अन्त में 'आ' पुं-विभक्ति, किया' । वृत-धिय' । 'य' को फिर 'इ' और सवर्ण- दीर्घ-'यी। __पद के अन्त्य 'म' को कभी-कभी अनुनासिक 'व' हो जाता है ग्राम-गाँव, नाम-ताब । 'ग्राम' के 'र' का लोप भी। कभी-कभी अन्त्य 'द' को भी सानुनासिक ढं' होते देखा गया है-'पाद-पाँव' । न्को फारसी में 'ल' होते देखा गया है-'विना-विला' । यह 'विला' उर्दू में भी चलता है। य को ज होना तो आप सर्वत्र देख सकते हैं। 'बाजा' में य की ही सत्ता 'ज् के रूप में है । 'वाद्य' से 'बाजा' है । व को व; द् का लोप और य् को ज् । अन्त में पुं-विभक्ति और ,दीर्घ-एकादेश—'वाजा। 'अद्य' का 'आज' बना, आद्य स्वर दीर्घ हो कर-परन्तु 'पद्य' का 'पाज' नहीं बना ! क्यों नहीं बना, यह प्रश्न सम्भव है। 'आज' और 'कल' के बिना साधारण जनता का काम चल नहीं सकता। परन्तु अपढ़ लोग 'पद्य' क्या जाने ? शब्द-विकास साधारण जनता में होता है। पढ़े-लिखे लोग तो ज्यों का त्यों उच्चारण किया करते हैं। सो, 'पद्य जैसे का तैसा बना रहा; 'गद्य' भी। 'गद्य तो वैसे भी 'गाज' न बनेगा। किसी को मारना थोड़े ही है! एक वात पूछी जा सकती है । 'अद्य' का 'आजा' क्यों नहीं हुआ; 'वाजा' की तरह ? उत्तर है : 'आजा' हिन्दी में पितामह को भी कहते हैं; इसलिए भेद रखा । दूसरी बात, वैसो (तद्भव) संज्ञाओं तथा विशेषणों में ही पुं-व्यंजक्र विभक्ति लगती है। 'आज' तो काल-वाचक अव्यय है—अब, तब की तरह। 'सेज' में भी 'ज्' 'यू' का हो वना है-शव्या-सेज । क्या-क्या परिवर्तन हुए; समझ लीजिए। 'र' हमारे यहाँ तो 'ल या 'ड' के रूप में बदला करता है; पर उर्दू वाले 'र' को 'ह' भी कर देते हैं-अल्पप्राण को महाप्राण बना देते हैं-'सरल'-'सहल' ! 'रज्जू' का ब्रज में 'लेजू' रूप हो गया है- पानी भरने को रस्सी।