पृष्ठ:हिन्दी निरुक्त.pdf/४

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वात नहीं की। आठवें दशक के पूर्वार्द्ध में 'मिनाक्षी प्रकाशन' के व्यवस्थापक दो वार कनखल आए और कुछ देने की प्रार्थना की। मैंने उन्हें अपनी अच्छी हिन्दी'. 'हिन्दी शब्द मीमांसा तथा 'राष्ट्र भाषा का प्रथम व्याकरण' प्रकाशनार्थ दे दिया। इन तीनों पुस्तकों का प्रकाशन वहाँ से हुआ; परन्तु 'राष्ट्र भाषा का प्रथम व्याकरण' का नाम बदल कर हिन्दी व्याकरण' के नाम से निकाला। अपने असली नाम से निकलता, तो अधिक महत्त्व रखता। वैर, अब पिछले दिनों दो बार दिल्ली से 'वाणी प्रकाशन' के व्यवस्थापक वि० अशोक कुमार कनखल आए और कुछ देने को कहा । मैं कुछ नया लिख नहीं सकता। उन्हें यह 'हिन्दी-निश्क्त' प्रकाशनार्थ दे दिया । ऐतिहासिक महत्त्व की चीज है-'भारतीय भाषा विज्ञान' का बीज है, इसलिए मांग थी। माहेश्वरी जी मुझे परिष्कृत विचारों के प्रकाशक जान पड़े । वहाँ से 'हिन्दीलिन्दन' पुन: प्रकाशित हो, यह मुझे अच्छा जान पड़ा। सो, यह छोटी-सी पृम्नक आपके हाथ आ गई है। सबके अच्छे दिन आ सकते हैं। यह संस्करण ज्यों का त्यों निकल रहा है। न कोई संशोधन, न परिवर्तन, न परिवर्द्धन । वियय का ऐतिहासिक महत्त्व भी है। कनखल, उ० प्र० -~-किशोरीदास वाजपेयी