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४२: हिन्दी-निरुक्त
 

एक मिरा आ कर मिलता है। नारनौल, भटिंडा, अबोहर, सेंगरिया आदि ऐसे ही क्षेत्र में हैं । यह 'थारा' आगे चल कर, पंजाबी-क्षेत्र के बढ़ते हुए प्रभाव में, हो गया-'वाडा' । 'म्हारा' बन गया साडा' । 'म्' का लोप और 'ह' को 'स्' । 'स्' और ह, का बहुत मेल है । 'स' तो सदा ही 'ह' बना करता है। पर कहीं ह, का 'स्' भी हो सकता है, होता है। विसर्गों का और ह, का स्थान एक ही है-कंठ । उच्चारण भी प्रायः समान ही है। इसी लिए, संस्कृत में विसर्गों के स्थान पर प्रायः स्' हो जाया करता है । सो, 'म्हारा' का 'साडा' बन जाना कोई बड़ी बात नहीं है। र और इ का तो इतना मेल है और एक दूसरे का प्रतिनिधित्व इतना अधिक करते हैं कि उदाहरण देना व्यर्थ है। पंजाब की कडकदार भाषा र की कोमलता को पसन्द नहीं करती। उसने 'र' की जगह 'ड' कर लिया। कड़कदार शब्द बन गये-'वाडा', 'साडा' (तुम्हारा, हमारा)। पंजाबी भाषा ने इस 'डा' का प्रयोग कहीं नरम भी कर दियाराम दा घर, गोपाल दे मकान, माधव दी हट्टी । बंगाल ने सर्वत्र 'र' रखा; पंजाब ने उसे 'डा' तथा 'दा' के रूप में ग्रहण किया। मतलब उसी 'र' से है, जो 'द' तथा 'ड' बना ! हिन्दी की वह पुं-विभक्ति (1) पंजाबी में भी है। तभी तो 'थ्वाडा, साडा' रूप बने । 'ड' का 'द रूप हिन्दी में 'क' बनकर वहाँ प्रयुक्त हुआ, जहाँ पश्चिमी युक्तप्रान्त और पूरवी पंजाब का मेल होता है । असल में यह 'क' विभक्ति ही समझिए, जिसमें अविच्छिन्न रूप से हिन्दी की -विभक्ति (1) लग कर 'का' का रूप दे दिया है। ब्रजभाषा में यह पुं-व्यंजक विभक्ति 'ओ' (ओ) के रूप में है-'राम को'। पुं.व्यंजक विभक्ति 'आ' और 'ओ' हिन्दी में किस तरह कहाँ से आयीं; यह बात अभी आगे बतायेंगे ! पहले र, ड, द, क से निपट लें। सो, निपट चके। हम में अपना मत रख दिया। हिन्दी में यदि कभी कोई इस मत के विरुद्ध कुछ कहेगा, तो उस पर अच्छी तरह विचार किया जायगा। अब प्रसंग-प्राप्त इस 'आ' तथा 'ओ' विभक्ति की भी जांच-पड़ताल हो जानी चाहिए। १८-'आ' तथा 'ओ' विभक्तियाँ 'आ' तथा 'ओ' हिन्दी की संश्लेपात्मक विभक्तियाँ हैं, (तुम्हारा- हमारा आदि में 'र' की तरह। इस पर में भी 'आ' विभक्ति लगी